नई दिल्ली: अमेरिका की अफगानिस्तान से विदाई हो गई है। और 20 साल बाद फिर से अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हो गया है। लेकिन 2021 का तालिबान 1996-2001 के दौर से बेहद अलग दिखने की कोशिश में है। उस वक्त वह अपनी क्रूरता और आतंकवाद को छुपाता नहीं था। उसकी खुलेआम नुमाइश करता था। लेकिन इस बार तालिबान बदलने का दावा कर रहा है। वह कह रहा है कि सबको शरीयत के अनुसार काम करने की आजादी होगी, महिलाओं को नौकरी और पढ़ाई की छूट होगी, साथ ही वह भारत सहित दुनिया के साथ अच्छे रिश्ते बनाकर चलेगा। हालांकि उसके दावे की 31 अगस्त को ही पोल खुल गई। जब उसने अमेरिकी सेना के जाने के बाद एक दुभाषिए को मौत की सजा देकर उसके शव को हेलिकॉप्टर से लटकाकर पूरे शहर में घुमाया। जिससे कि लोग उसके खौफ के साये में जी सके।
अफगानिस्तान का नया नाम
तालिबान ने 16 अगस्त को यह साफ कर दिया था, कि सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान का नया नाम होगा। जो कि इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान कहलाएगा। और वहां का शासन शरीयत के अनुसार किया जाएगा।
ईरान की तर्ज पर शासन प्रणाली
अभी तक तालिबान ने सरकार का गठन नहीं किया है। लेकिन जैसी संभावना है और पिछले सालों में अमेरिका से तालिबान के समझौते के लिए जिन नेताओं ने अहम भूमिका निभाई है। उसे देखकर नई तालिबान सरकार के प्रमुख चेहरों का अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा माना जा रहा है कि तालिबान में ईरान की तरह शासन प्रणाली होगी। जिसमें एक धार्मिक गुरु सर्वोच्च होगा और उसके तहत राष्ट्रपति से लेकर दूसरे मंत्री काम करेंगे। धार्मिक गुरू सरकार के रोज मर्रा के काम-काज में दखल नहीं देगा।
हिब्तुल्लाह अखुंदजादा (सुप्रीम नेता)
60 साल के हिब्तुल्लाह एक धार्मिक नेता है और इस समय तालिबानों में सबसे ताकतवर नेता है। ऐसा माना जा रहा है कि नई सरकार में वह सर्वोच्च नेता होगा। जो एक तरह से सुप्रीम लीडर के रुप में काम करेगा। हिब्तुल्लाह को 2016 में नेतृत्व मिला था। उसे यह जिम्मेदारी अमेरिका के ड्रोन हमले में अख्तर मंसूर के मारे जाने के बाद मिली थी। हिब्तुल्लाह कांधार का रहने वाला है और पश्तूनी है। वह 1980 में सोवियत संघ के कब्जे के बाद से संघर्ष कर रहा है। वह तालिबान के साथ उसके गठन के समय से जुड़ा हुआ है। वह एक समय तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर का मुख्य धार्मिक सलाहकार था। तालिबान के पहले शासन में अवैध संबंध रखने वालों को मौत की सजा देना या चोरी करने वाले लोगों के हाथ काटने का फतवा जारी करना हो, इस तरह के आदेश उसी ने जारी किए थे।
मुल्ला अब्दुल गनी बरादर
अब्दुल गनी बरादर को मुल्लाह उमर ने बरादर की उपाधि दी थी। जिसका मतलब बड़ा भाई था। 50 साल का अब्दुल गनी इस समय तालिबान का राजनीतिक प्रमुख है। 2010 में उसे कराची में गिरफ्तार किया गया था और 8 साल तक वह जेल में रहा है। ऐसा माना जाता है कि अमेरिका के आग्रह पर उसे जेल से रिहा किया गया था, जिससे कि वह तालिबान के लिए अमेरिका के साथ बातचीत कर सके। उसके बाद से वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तालिबान का चेहरा बन गया। और उसने न केवल तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपित डोनाल्ड ट्रंप से फोन पर बात की बल्कि पाकिस्तान और चीन के अधिकारियों से भी लगातार मिलता रहा है। ऐसे में वह सरकार में अहम भूमिका निभा सकता है।
मुल्ला मुहम्मद याकूब
याकूब मुल्ला उमर का बेटा है और वह तालिबान सेना की पूरी जिम्मेदारी संभालता है। जिस तरह से तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया, उसमें उसकी सैन्य क्षमताओं का भी पता चलता है। याकूब अभी 30 साल का है। और ऐसा कहा जाता है कि 5 साल पहले उसे ही हिब्तुल्लाह अखुंदजादा की जगह नेता चुनाा जा रहा था। लेकिन उसने अपनी उम्र और अनुभव को देखते हुए हिब्तुल्लाह अखुंदजादा की उम्मीदवारी का समर्थन किया। ऐसे में साफ है कि नई सरकार में सेना की देखरेख की जिम्मेदारी उसी के पास रहने वाली है।
सिराजुद्दीन हक्कानी
सिराजुद्दीन मुजाहिदीन कमांडर जलालुद्दीन हक्कानी का बेटा है। जो सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध लड़ा था। इसने झरझरा पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर फैले सेनानियों की एक शक्तिशाली आतंकी सेना का निर्माण किया था। हक्कानी नेटवर्क ने 2001 में तालिबान का समर्थन किया और काबुल और अन्य जगहों पर दर्जनों आतंकी हमले किए। सिराजुद्दीन हक्कानी के अल-कायदा से लेकर पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से भी गहरे संबंध हैं। वह एफबीआई की मोस्ट वांटेड संदिग्धों की सूची में शामिल है। वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आतंकियों की लिस्ट में भी है और उस पर 50 लाख डॉलर का इनाम है। ऐसे में वह तालिबान सरकार में किस तरह की भूमिका निभाता है। यह देखने वाली बात होगी, क्योंकि अगर वह खुलकर सामने आता है तो तालिबान के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।
इसके अलावा शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई और जैबिउल्लाह मुजाहिद नई सरकार में अहम भूमिका निभाते दिख सकते हैं। शेर मोहम्मद अब्बास साल 2012 से दोहा से तालिबान का राजनीतिक कार्यालय चला रहा है। और उसकी दूसरे देशों के साथ बातचीत में अहम भूमिका होती है। इसी तरह जैबिउल्लाह प्रवक्ता के रुप में दिखाई दे रहा है।
संभाल पाएंगे सरकार
इन नेताओं के जरिए तालिबान सरकार की राह कैसे होगी, इस पर भारत सरकार के पूर्व विदेश सचिव मुचकुंद दुबे ने टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से कहा "अफगानिस्तान में किसी भी सरकार के लिए शासन करना आसान नहीं रहा है। पिछले 40 साल से मैं यही देख रहा हूं। तालिबान ने साफ कर दिया है कि वह शरीयत के अनुसार शासन करेंगे। लेकिन अफगानिस्तान की जनता इस तरह के शासन प्रणाली में विश्वास नहीं करती है। ऐसे में आने वाले दिनों में तालिबान को अफगानिस्तान के अंदर से ही बड़ी चुनौतियां मिलने वाली हैं। क्योंकि वहां की लड़कियां पढ़ना चाहती है, नौकरियां करना चाहती हैं। वहां के लोग आधुनिक जीवन जीना चाहते हैं। और तालिबान ऐसा करने नहीं देगा। ऐसे में विद्रोह की स्थिति पैदा होगी।
एक बात और समझनी होगी कि वहां पर अनेक लड़ाकू जातियां हैं, जो सत्ता में अपना हक जताएगी। भले ही इस समय तालिबान ने कब्जा कर लिया है लेकिन यह जातियां लंबे समय तक चुप बैठने वाली नहीं हैं। इसके अलावा अफगानिस्तान को इस समय अंतरराष्ट्रीय सहयोग की बेहद जरूरत है। क्योंकि उसके पास संसाधन नहीं हैं। ऐसे में उसे अंतरराष्ट्रीय मदद की जरूरत है। तालिबान के लिए यह समर्थन हासिल करना आसान नहीं होगा। अगर वह ऐसा नहीं कर पाया तो लोग इलाज के बिना मरेंगे, महंगाई में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी, भुखमरी की स्थिति पैदा सकती है। ऐसे में तालिबान सरकार कितने दिन तक स्थिर रहेगी, यह कहना मुश्किल है। "
फ्रांस ने रखी शर्त
इस बीच फ्रांस सरकार ने कहा है कि हम अपने सहयोगियों के साथ मिलकर तालिबान के साथ रिश्तों पर आम सहमति बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन तालिबान को यह समझना होगा कि केवल बातों से कुछ नहीं होगा। उन्हें करके दिखाना होगा। तालिबान को मानवता के कानून के आधार पर कुछ अफगाानियों को देश छोड़कर जाने की अनुमति देनी चाहिए। आतंकियों के आवाजाही पर स्थिति पर स्पष्ट करनी होगी। उसे एक समावेशी संविधान बनाना होगा।