- बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में बिहार राज्य की भूमिका बेहद अहम
- आजादी के इतिहास में चंपारण सत्याग्रह को मील के पत्थर का दर्जा
- दुनिया को 'शून्य' देने वाले आर्यभट्ट भी बिहार राज्य से ही थे
नई दिल्ली: गौरवशाली परंपरा एवं समृद्ध संस्कृति का वाहक बिहार आजादी के समय देश के अग्रणी राज्यों में शुमार था। दुनिया के प्रचीनतम गणतंत्रों में से एक वैशाली इसी राज्य में है। चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य काबुल से लेकर दक्षिण भारत का फैला था। दुनिया को 'शून्य' देने वाले आर्यभट्ट भी इसी राज्य से थे। सम्राट अशोक, विक्रमादित्य और चंद्रगुप्त जैसे शासकों की कार्यशैली प्रशंसा आज भी होती है। भगवान बुद्ध के बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में इस राज्य ने अहम भूमिका निभाई। दुनिया का प्राचीनतम विश्वविद्यालय तक्षशिला आज भी अपने गौरव की कहानी कहता है।
बिहार की धरती से खड़ा हुआ आजादी के लिए जनांदोलन
देश की आजादी में इस राज्य की अहम भूमिका रही है। महात्मा गांधी की 1917 की पश्चिम चंपारण यात्रा स्वतंत्रता आंदोलन को धार देने में एक प्रमुख कारण बनी। आजादी के इतिहास में चंपारण सत्याग्रह को मील का पत्थर माना जाता है। इसी आंदोलन की वजह से देशवासियों ने मोहनदास करमचंद गांधी को 'महात्मा' के तौर पर पहचाना।
भारत की आजादी के लिए एक तरह से यहीं जनांदोलन खड़ा हुआ। कहने का मतलब है कि सांस्कृतिक एवं राजनीतिक रूप से एक सशक्त राज्य की पहचान रखने वाला बिहार आजादी के कुछ दशकों बाद तरक्की के रास्ते से पिछड़ता गया और अपनी समृद्ध विरासत रखते हुए भी विकास के रास्ते पर उस तरह की पहचान नहीं बना पाया जिसका वह हकदार था।
आजादी के बाद बिहार की समृद्ध राज्यों में गिनती
आजादी के बाद की इस राज्य की राजनीति की अगर बात करें तो बिहार की राजनीति में 90 के दशक तक कांग्रेस का दबदबा रहा। लोग कांग्रेस को चुनते आए और इसी पार्टी की सरकार रही। आजादी के बाद डॉ. श्री कृष्ण सिंह राज्य के पहले मुख्यमंत्री और डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा राज्य के पहले डिप्टी मुख्यमंत्री एवं वित्त मंत्री बने। आजादी के बाद बिहार की गिनती देश के उन्नत एवं समृद्ध राज्यों में होती थी। राज्य में दो दशकों तक कांग्रेस ने मजबूती से शासन किया। हालांकि, इस दौर के मुख्यमंत्रियों पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का कठपुतली होने का आरोप लगता रहा।
सामाजिक अभिशाप जमींदारी प्रथा का अंत
श्री कृष्ण सिंह राज्य में लंबे समय तक 1961 तक मुख्यमंत्री रहे। सीएम रहते हुए सिंह ने कई सुधारवादी कदम उठाए। उन्हें 'आधुनिक बिहार के प्रणेता' के रूप में भी जाना जाता है। दलित समुदाय को सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण की दिशा में पहले करते हुए उन्होंने देवघर स्थित वैद्यनाथ मंदिर में दलितों का प्रवेश सुनिश्चित कराया। जमींदारी प्रथा जो गरीबों एवं दलितों के लिए एक अभिशाप मानी जाती थी उसे भी खत्म कराया। सिंह अपने समय के कद्दावर नेताओं में शुमार थे। इन्हें सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटते थे। सभाओं में इनकी गर्जना को देख इन्हें 'बिहार केसरी' बुलाया जाने लगा।
पहली पंचवर्षीय योजना में शीर्ष पर था बिहार
बिहार को तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ाने के लिए सिंह और अनुग्रह नारायण सिन्हा ने कई परियोजनाओं की शुरुआत की। इनमें कोशी, अघौर एवं साकरी जैसे नदी परियोजनाएं प्रमुख थीं। पहली पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण विकास एवं कृषि के क्षेत्र में खासा जोर दिया गया। पहली पंचवर्षीय योजना में बिहार देश का अग्रणी राज्य बना। दूसरी पंचवर्षीय योजना में राज्य में औद्योगिक कल कारखाने स्थापित हुए। बरौनी रिफाइनरी, बोकारो स्टील प्लांट, बरौनी थर्मल पावर स्टेशन, दामोदर वैली कॉरपोरेशन जैसे अनेक संयंत्रों एवं औद्योगिक कारखानों की नीव पड़ी।
राज्य में इंजीनियरिंग कॉलेजों की स्थापना
राज्य में सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्थान के लिए मुख्यमंत्री सिंह ने कई कदम कदम उठाए। बिहारी छात्रों के लिए उन्होंने कलकत्ता में राजेंद्र छात्र निवास की स्थापना की। पटना में अनुग्रह नारायण सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस की नीव पड़ी। मुजफ्फरपुर, भागलपुर, जमशेदपर, गया और मोतिहारी में इंजीनियरिंग कॉलेज बने। पटना में भारतीय नृत्य कला मंदिर, संस्कृत कॉलेज और रवींद्र परिषद की स्थापना हुई तो राजगीर में भगवान बुद्ध की प्रतिमा लगाई गई। डॉ. सिंह ने राज्य को तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ाने में जो लगन एवं निष्ठा दिखाई उसे इस बात से समझा जा सकता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था का आकलन करने के लिए पॉल एच एप्पलबाय को भेजा था और एप्पलबाय ने अपनी रिपोर्ट में बिहार को देश का सर्वश्रेष्ठ प्रशासित राज्य बताया।
सत्येंद्र नारायण सिंह का उभार
कांग्रेस सरकारों के बारे में कहा जाता है कि राज्य के विकास के लिए डॉ. सिन्हा ने जो रास्ता चुना था उस विरासत को बाद के मुख्यमंत्री आगे नहीं बढ़ा सके। डॉ. सिन्हा ने राज्य के लिए जो एक मजबूत नीव रखी उस पर बाद के मुख्यमंत्रियों को एक भव्य इमारत खड़ी करनी थी लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव एवं आपसी खींचतान की वजह से इन नेताओं राज्य के विकास की कहीं न कहीं अनदेखी की। आगे चलकर राज्य के विकास के प्रति अपने शीर्ष नेताओं की अनदेखी को लेकर कांग्रेस में आगे चलकर असंतोष के स्वर उभरने लगे। इसी विरोध और असंतोष को लेकर सत्येंद्र नारायण सिंह का उभार हुआ। वर्षों तक कांग्रेस पार्टी के साथ रहने वाले सिंह का पार्टी से मतभेद बढ़ता गया और एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने जनता पार्टी का दामन थाम लिया।
1961 के बाद दिखी राजनीतिक अस्थिरता, लगातार बदले सीएम
डॉ. सिंह 14 साल से ज्यादा समय तक बिहार के मुख्यमंत्री पद पर रहे लेकिन इसके बाद मुख्यमंत्री पद पर स्थायित्व नहीं रहा। सिन्हा के बाद राज्य में मुख्यमंत्री लगातार बदलते रहे। 1990 तक राज्य में कमोबेश कांग्रेस का ही शासन रहा लेकिन इन 30 सालों में राज्य को 23 मुख्यमंत्रियों को देखना पड़ा। इन 23 मुख्यमंत्रियों में 17 कांग्रेसी थे। राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का दौर इस कदर हावी रहा कि यहां पांच बार राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। राज्य में पहली बार पांच मार्च 1967 से लेकर 28 जनवरी 1968 तक महामाया प्रसाद सिन्हा के मुख्यमंत्रित्व काल में जनक्रांति दल का शासन रहा। इसके बाद 22 जून 1969 से लेकर चार जुलाई 1969 तक कांग्रेस के ही एक धड़े कांग्रेस (ओ) का शासन रहा और भोला पासवान शास्त्री ने मुख्यमंत्री बने। 22 दिसंबर 1970 से दो जून 1971 तक सोशलिस्ट पार्टी के लिए कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री रहे और फिर 24 जून 1977 से 17 फरवरी 1980 तक कर्पूरी ठाकुर और रामसुंदर दास के मुख्यमंत्रित्व काल में जनता पार्टी का शासन रहा।
डिस्क्लेमर: टाइम्स नाउ डिजिटल अतिथि लेखक है और ये इनके निजी विचार हैं। टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है।