- लोजपा के इस सियासी संकट के बाद से बिहार में बनेंगे नए राजनीतिक समीकरण
- लोजपा पर हक चिराग का या पशुपति का आने वाले दिनों में होगा फैसला
- बिहार चुनाव में चिराग ने जद-यू उम्मीदवारों के खिलाफ खड़े किए थे अपने प्रत्याशी
नई दिल्ली : लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान ने कभी सोचा नहीं होगा कि उनके चाचा पशुपति पारस ही उनके साथ दगा करेंगे। चिराग जब तक संभलते तब तक उनके चाचा ने एक तरह से बाजी अपनी तरफ कर ली थी। अब दोनों के बीच पार्टी पर दावे की लड़ाई तेज हो गई है। एक दूसरे को कमजोर दिखाने के लिए वार-पलटवार किए जा रहे हैं। चिराग ने खुले तौर पर इस बगावत के लिए जनता दल-यूनाइटेड को जिम्मेदार ठहराया है जबकि पशुपति का कहना है कि उन्होंने पार्टी तोड़ी नहीं बल्कि उसे बचाया है।
बिहार में बनेंगे नए सियासी समीकरण
लोजपा के इस सियासी संकट से बिहार की राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत भी हो रही है। लोजपा के इस ताजा प्रकरण में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की क्या भूमिका है, यह स्पष्ट नहीं है लेकिन जानकार मानते हैं कि नीतीश 'दोस्ती और दुश्मनी' बहुत शिद्दत से निभाते हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग ने जिस तरह से नीतीश को नुकसान पहुंचाया उसकी टीस उनके मन में बहुत गहरी है।
2013 में हुई चिराग की सियासी पारी की शुरुआत
राजनीति में चिराग ने साल 2013 में कदम रखा। उस समय लोजपा एनडीए का हिस्सा नहीं थी। कहा जाता है कि चिराग के कहने पर ही उनके पिता दिवंगत राम विलास पासवान एनडीए का हिस्सा बने। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में लोजपा ने सात सीटों में से छह सीटों पर जीत दर्ज की। चिराग खुद जमुई सीट से लोकसभा पहुंचे। राम विलास पासवान भविष्य में अपनी पार्टी की कमान अपने बेटे चिराग को सौंपना चाहते थे इसीलिए उन्होंने संसदीय दल उन्हें चेयरमैन बनाया। पार्टी में चिराग को इतने महत्वपूर्ण पद पर ताजपोशी को उनके दोनों चाचा पशुपति पारस और राम चंद्र पासवान देखते रहे। पार्टी में चिराग को अहम पद दिए जाने पर उन्होंने सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहा। समय-समय पर पशुपति पारस जरूर अपने भतीजे चिराग के 'अहं एवं अपरिपक्वता' पर सवाल उठाते रहे। फिर भी राम विलास पासवान पार्टी और परिवार दोनों को एक साथ लेकर चलते रहे।
पासवान ने चिराग को सौंपी पार्टी की कमान
बिहार विधानसभा चुनाव के समय राम विलास पासवान के निधन के बाद लोजपा सियासी संकट के दौर से गुजरने लगी। पार्टी की कमान चिराग के हाथों में थी। पासवान ने चिराग को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया था जबकि समस्तीपुर से सांसद एवं अपने भतीजे प्रिंस राज को एलजेपी के प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी।
पशुपति नहीं चाहते थे जद-यू के खिलाफ चुनाव लड़े लोजपा
बिहार चुनाव में जद-यू के खिलाफ प्रत्याशी उतारने का चिराग का फैसला कहीं न कहीं पशुपति पारस को रास नहीं आया। वह नहीं चाहते थे कि लोजपा जद-यू के खिलाफ चुनाव लड़े। पशुपति के मन में नीतीश कुमार के प्रति सहानुभूति कितनी है यह उनके बयानों से देखी जा सकती है। चुनाव में चिराग ने जद-यू के खिलाफ अपने मजबूत प्रत्याशी उतारे इससे नीतीश की पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ा और वह राज्य में तीसरी नंबर की पार्टी बन गई। चुनाव में जद-यू के वोट प्रतिशत में भी काफी नुकसान हुआ।
बिहार चुनाव में लोजपा को हुआ नुकसान
चिराग ने नीतीश का सियासी नुकसान तो किया ही, अपनी पार्टी को भी सफलता नहीं दिला पाए। लोजपा जो लोकसभा और विधानसभा चुनावों में पांच से 12 प्रतिशत तक वोट पाया करती थी वह 2020 के विधानसभा चुनाव में एक प्रतिशत से भी कम वोट हासिल कर सकी और लोजपा का उम्मीदवार विजयी हुआ। चुनाव नतीजे आने के बाद चिराग एक तरह से बिहार की राजनीति में अप्रासंगिक होने लगे। चिराग को उम्मीद थी कि उनकी पार्टी एनडीए का हिस्सा है और चुनाव के बाद उन्हें केंद्र में उनकी पार्टी से मंत्री बनाए जाएंगे लेकिन मोदी सरकार इस दिशा में आगे नहीं बढ़ी। जानकार मानते हैं कि भाजपा लोजपा को मंत्री पद देकर नीतीश कुमार नाराज नहीं करना चाहती है।
पार्टी के हालात समझने से चूके चिराग
बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है, चिराग यह समझ नहीं पाए। उनके पिता राम विलास पासवान के बारे में कहा जाता है कि वह बहुत बड़े 'मौसम विज्ञानी' थे। वह राजनीतिक हवा का रुख भांपने में माहिर थे लेकिन लगता है कि चिराग अपने पिता की इस खासियत को अपने अंदर समेट नहीं पाए। वह इस बात से अनजान रहे कि पार्टी के अंदर ही उनके खिलाफ क्या कुछ चल रहा है।