- तमिलनाडु में हर साल पोंगल के मौके पर जल्लीकट्टू का आयोजन होता है
- पुश क्रूरता के नाम पर इसे प्रतिबंधित किया गया था, लेकिन इससे जनभावना भड़क गई
- तमिलनाडु में इसे लोग तमिल परंपरा और गौरव से जोड़कर देखते हैं
चेन्नई : तमिलनाडु में हर साल पोंगल के मौके पर जल्लीकट्टू का आयोजन होता है। इस बार भी यह त्योहार हर साल की तरह जारी है, जिसे देखने के लिए बीजेपी के दिग्गज से लेकर कांग्रेस के नेता भी दिल्ली से पहुंच रहे हैं। विवादों में रह चुका यह त्योहार आखिर इतना महत्वपूर्ण क्यों हो चुका है कि हर कोई इसकी एक झलक देखने के लिए तमिलनाडु पहुंच रहा है और इसे जनभावना का खेल बता रहा है। कभी इस पर प्रतिबंध लगाने वाली कांग्रेस के सुर भी बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। जाहिर तौर पर इन सबकी वजह इस साल अप्रैल-मई में होने वाला विधानसभा चुनाव है, जिसके लिए सियासी सरगर्मियां यहां उफान पर हैं।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी गुरुवार को राज्य के मदुरै में जल्लीकट्टू देखने पहुंचे थे, जिसे उन्होंने तमिलनाडु की संस्कृति का जीवंत उदाहरण बताया तो यह भी कहा कि तमिल संस्कृति, तमिल भाषा और तमिल इतिहास का सीधा संबंध भारत के भविष्य से है और इनका सम्मान किया जाना चाहिए। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ही नहीं, बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत भी तमिलनाडु के इस सबसे बड़े उत्सव में भाग के लिए राज्य के दौरे पर हैं। तमिलनाडु के इस उत्सव में नेताओं की इस भागीदारी से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह त्योहार यहां कितना खास है।
तमिल गौरव से जुड़ा है जल्लीकट्टू
दरअसल, तमिलनाडु में जल्लीकट्टू की परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है। यह त्योहार यहां तमिल गौरव का प्रतीक बन चुका है और यही वजह है कि 2011 में जब केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी कर इसे पशु क्रूरता के दायरे में रखते हुए इस पर प्रतिबंध लगा दिया था तो इसे लेकर तमिलनाडु में खूब हंगामा हुआ। इस एक फैसले ने देश में उत्तर और दक्षिण की संस्कृति के बीच विभाजन के हालात पैदा कर दिए और आरोप लगे कि जल्लीकट्टू का विरोध वही कर रहे हैं, जो तमिलनाडु की संस्कृति और यहां की भाषा को नहीं समझते और उसका सम्मान नहीं करते।
तनावपूर्ण हालात के बीच तब तमिलनाडु में सत्तारूढ़ डीएमके ने राज्य के एक कानून के तहत केंद्र की उस अधिसूचना को नहीं माना और यह त्योहार राज्य में बदस्तूर जारी रहा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने मई 2014 में राज्य के उस कानून को निरस्त कर दिया। इस तरह एक बार फिर इस त्योहार पर प्रतिबंध लग गया। हालांकि 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में जब एनडीए की नई सरकार बनी तो जनवरी 2016 में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के 2011 की अधिसूचना में संशोधन कर दिया। इसके बाद कुछ शर्तों के साथ जल्लीकट्टू को फिर से अनुमति मिल गई।
सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि फिर इस संशोधन को निरस्त कर दिया, जिसके बाद तमिलनाडु में खूब विरोध-प्रदर्शन हुए। इस त्योहार से तमिलनाडु के गौरव को जोड़कर देखने की भावना और मजबूत हुई, जिसके बाद कांग्रेस ने भी इसे लेकर अपना रुख पलट लिया। अब राहुल गांधी भी इस त्योहार को लेकर अपना समर्थन जता रहे हैं, जिनकी पार्टी पहले इस पर प्रतिबंध लगा चुकी है। अब साफ है कि तमिलनाडु में होने वाले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस, बीजेपी सहित तमाम राजनीतिक पार्टियों की दिलचस्पी इस त्योहार को लेकर क्यों है? लेकिन क्या आप जानते हैं, इसमें आखिर होता क्या है?
क्या है जल्लीकट्टू?
जल्लीकट्टू में परंपरागत रूप से यह होता रहा है कि एक सांड को कुछ समय के लिए कहीं बंद कर दिया जाता है और फिर अचानक उसे लोगों के बीच छोड़ दिया जाता है। उन्मत्त सांड अपनी क्षमता के हिसाब से सबसे तेज रफ्तार से भीड़ की ओर भागता है। भीड़ अफरा-तफरी में पीछे हटती है। ठीक इसी समय कुछ उत्साही व साहसी युवक सांड के सींगों से ठीक पीछे गर्दन के बाद के उभरे हुए हिस्से को पकड़ने की कोशिश करते हैं और कुछ देर के लिए इसे थामे रखते हैं। एक बार में केवल एक व्यक्ति को सींगों के उस कूबड़ को थामने की अनुमति होती है। यदि ऐसा करते हुए वह एक निर्धारित दूरी तक चला जाता है तो वह विजेता घोषित किया जाता है और उसे जल्लीकट्टू (सिक्कों का पैकेट) इनाम के तौर पर दिया जाता है। युवक यदि ऐसा नहीं कर पाता तो इसमें सांड जीत होती है और उसकी ताकत व चुस्ती-फुर्ती को सराहा जाता है। उस सांड को गांव में गायों के प्रजनन के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
इस दौरान सांडों की सुरक्षा एक अहम मसला होता है और इसका ध्यान रखना होता है कि उसके साथ दुर्व्यवहार न हो। पूंछ खींचना या उसे किसी भी रूप में अनावश्यक भड़काने की अनुमति नहीं होती। हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इस दौरान पशु जख्मी भी होते हैं और उनके साथ ज्यादती भी हो जाती है, लेकिन लोग इसे अपवाद के तौर पर देखते हैं। आम तौर पर इसका पूरा ख्याल रखा जाता है कि सांड के साथ किसी तरह का दुर्व्यवहार न हो। स्थानीय लोग इसे तमिल संस्कृति व गौरव से जोड़कर देखते हैं और यही वजह है कि लोग इस पर पाबंदी या इसे लेकर कोई समझौता करने को तैयार नहीं है।