- विधायकों के इस्तीफे के बाद अल्पमत में आ गथी थी कमलनाथ सरकार
- विधानसभा में बहुमत साबित करने से पहले सीएम पद से दे दिया इस्तीफा
- कमलनाथ ने भाजपा पर लगाया अपनी सरकार को अस्थिर करने का आरोप
मध्य प्रदेश में 13 महीने पुरानी कमलनाथ सरकार गिर गई है। शक्ति परीक्षण से पहले कमलनाथ को अहसास हो गया कि सदन में बहुमत साबित करने के लिए जरूरी विधायकों का संख्या बल उनके पास नहीं है। इसलिए उन्होंने सदन में फ्लोर टेस्ट का सामना करने से पहले मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। पांच साल के लिए जनादेश लेकर सत्ता में आने वाली कमलनाथ सरकार का इतनी जल्दी पटाक्षेप हो जाएगा इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। चूंकि मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार का राज अब नहीं रहा तो इसके गिरने और जाने के कारण भी खोजे जाएंगे।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के जो नतीजे आए उसमें भाजपा और कांग्रेस के बीच विधायकों का अंतर बहुत ज्यादा नहीं था। मध्य प्रदेश में विधानसभा की 230 सीटें हैं। चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 109 सीटें और कांग्रेस को 114 सीटें मिलीं। कमलनाथ ने सपा, बसपा और निर्दलीयों को साथ लेकर अपनी सरकार बना ली। दरअसल, कांग्रेस पार्टी को इस बात का अहसास होना चाहिए था कि कोई बड़ा सियासी उलटफेर होने पर उसकी सरकार जा सकती है। उसने मिलाजुलाकर किसी तरह से अपनी सरकार बनाई है। ऐसे में दर्जन भर विधायकों के इधर-उधर होने से उसका सत्ता का समीकरण बिगड़ सकता है।
कमलनाथ सरकार को यह भी ध्यान में रखना चाहिए था कि बहुमत के आंकड़े से भाजपा बहुत दूर नहीं है। राजनीतिक अवसर हाथ लगने पर वह मौके को लपकने के लिए तैयार रहेगी। बहुमत के करीब रहने वाले कमलनाथ सरकार के अस्थिर होने की आशंका हमेशा से बनी हुई थी और यह आशंका सही साबित हुई। कमलनाथ सरकार को काफी सतर्क रहना चाहिए था। उन्हें सियासी उलटफेर और उनकी सरकार को चुनौती दे सकने वाले उन सभी अवसरों एवं विकल्पों की गुंजाइश बंद करके रखना चाहिए था लेकिन वह ऐसा करने से चूक गए। उनके लिए यह चूक एक बड़ी राजनीतिक गलती साबित हुई।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के बागी विधायकों का असंतोष एक दिन में सामने आया। बेंगलुरु के रिसॉर्ट में ठहरने वाले कांग्रेस विधायकों ने स्पष्ट रूप से कहा कि सत्ता में आने के बाद कमलनाथ सरकार ने अपने वादों को पूरा नहीं किया। उन्हें लंबे समय तक गुमराह किया गया। विधायकों की अगर अनदेखी हुई तो इसके लिए कमलनाथ सरकार ही जिम्मेदार है। विधायकों के मन में अगर आशंकाएं, दुविधा या चिंताएं थीं तो मुख्यमंत्री को समय रहते उन्हें दूर करना चाहिए था और बागी सदस्यों को विश्वास में लेना चाहिए था। कांग्रेस विधायकों का टूटना कमलनाथ की नेतृत्व क्षमता पर भी सवाल उठाता है।
कमलनाथ सरकार के अस्थिर होने और उसके गिरने में ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी अहम भूमिका है। मध्य प्रदेश कांग्रेस में क्षत्रपों के अपने-अपने गुट हैं। इन छत्रपों में आपसी सियासी रंजिश पुरानी है। पार्टी में आंतरिक गुटबाजी भी देखने को मिलती रही है। यह बहुत कुछ गुटबाजी का ही नतीजा था कि सिंधिया मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए और कमलनाथ अपने सियासी अनुभवों एवं समीकरणों के चलते मुख्यमंत्री पद की बाजी जीत गए। प्रदेश कांग्रेस में छत्रपों के बीच आपसी खींचतान से कांग्रेस आलाकमान ने भी आंखें मूंदें रखीं। सिंधिया कांग्रेस से 18 साल तक जुड़े रहे। वह मध्य प्रदेश के कद्दावर नेताओं में शुमार हैं। ग्वालियर क्षेत्र में उनका अच्छा खासा प्रभाव माना जाता है।
कांग्रेस को समझना चाहिए था कि सिंधिया अगर इधर-उधर हुए तो वह अपने साथ निष्ठा रखने वाले दर्जन भर से ज्यादा विधायकों को अपने साथ ले जा सकते हैं। ये विधायक ऐसे होंगे जो केवल सिंधिया हुक्म से चलेंगे, उन्हें सत्ता का कोई प्रलोभन डिगा नहीं पाएगा। और हुआ ऐसा ही। सिंधिया खेमे के विधायकों ने इस्तीफा दे दिया और बेंगलुरु में जाकर बैठ गए। बेंगलुरू से इन विधायकों से संपर्क करने की कांग्रेस ने तमाम कोशिशें कीं लेकिन वह सफल नहीं हो पाई और अंतत: कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। ऐसे में मध्य प्रदेश में अपनी इस हालत के लिए खुद कांग्रेस ही जिम्मेदार है। भाजपा अगर दोबारा सत्ता में आती है तो इसका बहुत सारा श्रेय कांग्रेस को ही जाएगा क्योंकि उसने अपना घर अगर ठीक से संभाला होता तो उसके हाथ से राज्य की सत्ता नहीं फिसली होती।