- गोवा विधानसभा चुनाव में टीएमसी की हार और पंजाब में आम आदमी पार्टी के उभार ने ममता बनर्जी के राष्ट्रीय प्लान को झटका दिया है।
- बीरभूम हिंसा इसलिए बड़ी चुनौती बन गई है क्योंकि मृतकों में सभी लोग एक ही समुदाय के हैं। और हत्या का आरोप टीएमसी कार्यकर्ताओं पर लग रहा है।
- बीरभूम हिंसा में सत्ता का संघर्ष टीएमसी कार्यकर्ताओं के बीच हुआ। जो कि बंगाल की राजनीतिक संघर्ष में बड़े बदलाव का संकेत है।
Mamata Banerjee:पांच राज्यों के चुनाव आने के बाद से ममता बनर्जी के लिए लगातार चुनौतियां खड़ी होती जा रही हैं। पहले तो गोवा में हार और पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत से उनके नेशनल प्लान को झटका लगा। उसके बाद बीरभूम हिंसा ने , न केवल उनकी सेक्युलर छवि को धक्का पहुंचाया है बल्कि घटना की जांच को हाई कोर्ट ने जिस तरह सीबीआई को सौंपा उससे भी उन्हें झटका लगा है। और यह सब तब हो रहा है, जब उन्हें अप्रैल के महीने में अपने ही राज्य में मुस्लिम बहुल इलाके आसनसोल लोकसभा सीट पर उप चुनाव का सामना करना है।
बीरभूम हिंसा ममता के लिए क्यों बड़ी चुनौती
21 मार्च को पश्चिम बंगाल के बीरभूम में रामपुरहाट पंचायत समिति के बड़साल ग्राम पंचायत के उप-प्रधान और टीएमसी नेता भादू शेख की अज्ञात लोगों ने हत्या कर दी थी। और उसके बाद कुछ लोगों ने कई घरों में आग लगा दी और इस हमले की वजह से 8 लोगों की जलने से मौत हो गई। भादू शेख टीएमसी कार्यकर्ता थे और जिन लोगों ने उनकी हत्या की ,उसमें भी टीएमसी कार्यकर्ताओं के नाम सामने आ रहे हैं। अब तक इस मामले में 21 लोगों की गिरफ्तारी की जा चुकी है। और साल 2011 में ममता बनर्जी के सत्ता में आने के बाद, किसी मामले में टीएमसी कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी गिरफ्तारी है।
इसके अलावा ममता बनर्जी के लिए बीरभूम हिंसा इसलिए भी बड़ी चुनौती बन गई है क्योंकि मृतकों में सभी लोग मुस्लिम समुदाय के हैं। और हत्या का आरोप टीएमसी कार्यकर्ताओं पर लग रहा है। जो ममता बनर्जी की सेक्युलर छवि के लिए बड़ा धक्का है। जिसके बल पर वह हमेशा भाजपा पर आक्रमण करती रहती है। इसके पहले फरवरी में आलिया विश्व विद्यालय के छात्र अनीश खान की हत्या के मामले में टीएमसी नेताओं के नाम आने से भी ममता बनर्जी पर सवाल उठे थे।
बीरभूम हिंसा में एक और अहम बात सामने आई है जो पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा के तरीके में बड़ा बदलाव दिखाती है। असल में राज्य में स्थानीय स्तर पर सत्ता पर काबिज होने के लिए वामदल-कांग्रेस, वामदल-टीएमसी कार्यकर्ताओं में संघर्ष होता रहा है। लेकिन बीरभूम हिंसा में सत्ता का संघर्ष टीएमसी कार्यकर्ताओं के बीच हुआ। इससे साफ है कि पिछले 10 साल से सत्ता में टीएमसी के अंदर ही अब चुनौती ज्यादा है।
आसनसोल उप चुनाव में दिख सकता है असर
बीरभूम विवाद का असर आसनसोन में 12 अप्रैल को होने वाले उप चुनाव में दिख सकता है। जहां से टीएमसी की ओर शत्रुघ्न सिन्हा लोकसभा के लिए उम्मीदवार हैं। आसनसोल संसदीय सीट मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं। जहां पर 35-40 फीसदी आबादी मुस्लिम समुदाय की है। ऐसे में चुनावों के पहले बीरभूम हिंसा और उसके बाद टीएमसी नेताओं के बयान ममता के लिए चुनौती बन सकते हैं। पांडवेश्वर से टीएमसी विधायक नरेंद्रनाथ चक्रवर्ती का एक वीडियो सामने आया है जिसमें वह बीजेपी समर्थकों को घरों से बाहर नही निकलने की धमकी दे रहे हैं। वह यह कहते हुए दिखाई दे रहे हैं कि अगर बीजेपी को वोट दिया तो रहना मुश्किल हो जाएगा। इसके अलावा बीरभूम हिंसा में पुलिस कार्रवाई पर भी सवाल उठ रहे हैं। हालांकि इस वीडियो पर उनका कहना है कि यह शायद पुराना वोडियो है।
ममता की चिट्ठी क्या घबराहट का नतीजा
इस बीच ममता बनर्जी ने 27 मार्च को गैर भाजपा दलों के नेताओं को पत्र में लिखा है कि देश का लोकतंत्र खतरे में हैं। उन्होंने खत में यह भी लिखा है कि ईडी, सीबीआई, सीवीसी, और आयकर विभाग का इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों से प्रतिशोध के लिए हो रहा है।' इसके पहले भी वह यह कह चुकी है कि अगर बीरभूम हिंसा मामले में सीबीआई की जांच सही से नहीं हुई तो वह सड़क पर उतरेंगी।
बीरभूम हिंसा के बाद ममता बनर्जी के लिखे पत्र से साफ है कि उनके तेवर बदले हुए नजर आ रहे हैं। क्योंकि इस पत्र में यूपी सहित 5 राज्यों के चुनाव से पहले वाले तेवर नदारद हैं। जब वह बिना कांग्रेस के आगे बढ़ने की बात कर रही थी और साफ तौर पर कहती थी कि यूपीए अब कहां है।
राजनीतिक हिंसा और सत्ता संघर्ष का इतिहास
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास 70 के दशक से शुरू हुआ। उसके बाद चाहे कांग्रेस की सरकार हो या सीपीएम और अब ममता बनर्जी कोई भी इस पर लगाम नहीं लगा पाई है। और राजनीतिक हिंसा के मामले में उसका बिहार के बाद दूसरे नंबर पर आता है।
बंगाल की राजनीति पर करीब से नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक सुनील कुमार सिंह ने टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से बताया ' देखिए बंगाल की राजनीतिक हिंसा का इतिहास पुराना है। यहां पर कैडर बेस्ड सिस्टम है। जो गांव-मुहल्ले तक बना हुआ है। इसे समझने के लिए हमें क्लब सिस्टम को समझना होगा। वहां पर हर मुहल्ले तक क्लब बने हुए है। जिसमें सत्ताधारी पार्टी के कैडर के लोगों का कब्जा होता है। वहां पर छोटा सा भी काम बिना इन कैडर के सपोर्ट के नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर ठेके से लेकर दूसरे काम सरकार में बैठी पार्टी के कैडर को ही मिलते हैं। ऐसे में अगर उनका कोई विरोध करता है या उसके विरोध में खड़ा होता है, तो फिर हिंसा ही डराने और धमकाने का सहारा होती है।
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