- 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जद-यू के लिए पीके की चुनावी रणनीति हुई सफल
- नीतीश कुमार ने सितंबर 2018 में प्रशांत किशोर को जद-यू का बनाया राष्ट्रीय उपाध्यक्ष
- सीएए पर जद-यू के रुख के खिलाफ पीके ने दिया है बयान, पार्टी कर सकती है कार्रवाई
नई दिल्ली : बिहार के 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के लिए 'बिहार में बिहार हो, नीतीशे कुमार हो' नारा गढ़ने वाले और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) की जद-यू से दूरी बढ़ती जा रही है। यह दूरी इतनी बढ़ गई है कि पीके की नीतीश कुमार की पार्टी से हमेशा के लिए अलगाव हो सकता है। चर्चा यह भई है कि जद-यू आने वाले दिनों में पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए प्रशांत किशोर को पार्टी से निष्कासित कर सकती है। पीके का जद-यू की सफलता से गहरा नाता रहा है।
जद-यू की सफलता में पीके का रहा है बड़ा हाथ
बिहार के 2015 के विधानसभा चुनाव में चुनावी रणनीतिकार के रूप में प्रशांत किशोर ने एक बड़ी भूमिका निभाई। बताया जाता है कि पीके के प्रयासों से ही जद-यू, राजद और कांग्रेस का गठजोड़ महागठबंधन रूप ले सका। इस चुनाव में पीके का चुनावी नारा 'बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो' के नारे ने लोगों को काफी प्रभावित किया। पीके इस चुनाव में परदे के पीछे से जद-यू के लिए चुनावी रणनीति तैयार करते रहे। पीके शब्दों से खेलने में महारथी माने जाते हैं। राजनीति में विरोधियों को कैसे घेरना है उन्हें अच्छी तरह पता होता है। वह विरोधियों के बयानों का इस्तेमाल उनके खिलाफ करने में माहिर हैं।
पीएम मोदी के 'डीएनए' बयान का चुनावी इस्तेमाल
बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार के 'डीएनए' को लेकर एक बयान दिया था। पीएम ने एक रैली के दौरान कहा था कि 'उनके डीएनए के साथ कुछ गड़बड़ है'। पीके ने पीएम के इस बयान को भुना लिया। उन्होंने इस बयान पर जद-यू के लिए रणनीति तैयार की। जद-यू ने कहा कि पीएम ने अकेले नीतीश का नहीं बल्कि पूरे बिहार का अपमान किया है। जद-यू के इस दावे ने लोगों को प्रभावित किया। इसके बाद बिहार के लोग अपने बाल और नाखूनों के सैंपल दिल्ली भेजने लगे।
2015 में नीतीश के करीब आए पीके
2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और भाजपा को बड़ी सफलता दिलाने के बाद प्रशांत किशोर का नाम सियासी गलियारी में चर्चा का विषय बन गया। लेकिन बाद में भाजपा के साथ हुए अलगाव ने और 2015 में जद-यू की जीत में उनकी भूमिका ने, पीके को नीतीश कुमार के और नजदीक लेकर आई। नतीश कुमार को एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो जद-यू का दायरा राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने में उनकी मदद करे। नीतीश को लगा कि पीके जद-यू के विस्तार और उसकी छवि गढ़ने में मदद पहुंचा सकते हैं। यह देखते हुए नीतीश ने सितंबर 2018 में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया। बताया यह भी जाता है कि बिहार विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा के साथ सीट बंटवारे की जिम्मेदारी नीतीश कुमार ने प्रशांत को सौंपी थी।
पीके का कद बढ़ने से असहज थे पार्टी के नेता
सूत्रों का कहना है कि जद-यू में प्रशांत किशोर को उपाध्यक्ष बनाने और उन्हें बड़ी जिम्मेदारी सौंपे जाने से पार्टी के कुछ बड़े नेता असहज थे लेकिन उन्होंने इसका विरोध करने के बजाय चुप रहना ही बेहतर समझा। बताया यह भी जाता है कि पीके के कहने पर ही जद-यू के कुछ प्रवक्ताओं के पर कतरे गए। जद-यू का एक धड़ा प्रशांत किशोर की रणनीति को पसंद नहीं करता है।
सीएए पर पीके के रुख ने बनाई दूरी
नागरिकता संधोधन कानून (सीएए) पर जद-यू के रुख से विपरीत जाकर प्रंशात किशोर ने हाल के दिनों में बयान दिए हैं। संसद में जद-यू ने सीएबी का समर्थन किया। इसके बाद पीके ने सीएए के खिलाफ बयान दिया। समझा जाता है कि यहीं से जद-यू से उनके अलगाव की राह शुरू हुई। अब तो उन्होंने नीतीश कुमार को 'झूठा' तक करार दे दिया है। नीतीश कुमार का कहना है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कहने पर उन्होंने पीके को अपनी पार्टी में शामिल किया।
किशोर पर भरोसा करना मुश्किल
सूत्रों का कहना है कि प्रशांत किशोर में विश्वसनीयता का अभाव है। पीके ने पिछले कुछ महीने में ममता बनर्जी से मुलाकात की है और दिल्ली में उनकी संस्था आई-पैक केजरीवाल के लिए चुनावी रणनीति तैयार कर रही है जबकि दिल्ली में जद-यू, भाजपा के साथ मिलकर कुछ सीटों पर चुनाव लड़ रही है। जद-यू नेताओं का कहना है कि पीके इन दिनों कांग्रेस नेताओं के संपर्क में भी आए हैं। जाहिर पीके की ये सारी गतिविधियां जद-यू को नागवार गुजरी हैं और पार्टी आने वाले दिनों में यदि पीके पर कार्रवाई करती है तो इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए।