- पहली बार 1985 में विधायक बने थे नीतीश कुमार
- अटल सरकार में रेलमंत्री लह चुके हैं नीतीश कुमार
- समता पार्टी के नेता के तौर पर पहली बार मुख्यमंत्री बने थे
जेपी आंदोलन से राजनीति में अपनी छाप छोड़ने वाले नीतीश कुमार 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी जीत के साथ छठी बार मुख्यमंत्री बनने की जुगत में हैं। नीतीश कुमार ने बीते चार दशक में बिहार की राजनीति का हर वो मोड़ देखा है जहां राजनीतिक अखाड़े की हर बाजी खेली गई हो। पहली बार 1985 में विधायक बने नीतीश को बिहार में सुशासन बाबू के नाम से भी जाना जाता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा के 1989 में लालू यादव को विपक्ष का नेता बनाने में नीतीश ने अहम भूमिका अदा की थी। लेकिन 1996 से नीतीश ने राजनीति में अपना रंग दिखाना शुरू किया जब उन्होंने बीजेपी का समर्थन किया। लेकिन क्या आप जानते हैं नीतीश पहली बार मुख्यमंत्री कब बने थे? किन परिस्थितियों में नीतीश को कुछ ही समय के बाद अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी?
जब केंद्र में थी अटल सरकार और नीतीश बन गए बिहार के मुख्यमंत्री
बात उस समय की है जब लालू यादव इस देश की राजनीति का एक चमकता सितारा थे। फरवरी 2000 में हुआ बिहार विधानसभा चुनाव काफी दिलचस्प रहा। पूरे एक दशक लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में बिहार में अपनी सरकार चला चुकी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) अपनी जीत के लिए आश्वस्त थी। लेकिन उस समय की जनता दल (युनाइटेड) और समता पार्टी ने पूरी बाजी पलट दी। मुकाबला इतना टक्कर का हुआ कि कोई भी पार्टी बहुमत हासिल नहीं कर पाई। उस समय केंद्र में अटल सरकार थी। लालकृष्ण आडवाणी उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे। बीजेपी ने उस चुनाव में 67 सीटें हासिल की। वहीं लालू यादव की राजद 124 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही। समता पार्टी को 34 और जेडीयू को 21 सीटें प्राप्त हुई। नीतीश तब समता पार्टी के नेता हुआ करते थे। लेकिन यह आंकड़ा उनके मुख्यमंत्री बनने के लिए काफी नहीं था।
लोकतंत्र के तमाम आदर्श रखे गए ताक पर
इसी बीच नीतीश कुमार लालकृष्ण आडवाणी का समर्थन प्राप्त करने में कामयाब रहे। नीतीश उस समय वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री थे। तब अटल सरकार के एक और कैबिनेट मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज ने आडवाणी को यह भरोसा दिलाया था कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने रहेंगे। लेकिन तकदीर को कुछ और ही मंजूर था। 3 मार्च 2000 को लोकतंत्र के तमाम आदर्शों को ताक पर रख कर नीतीश कुमार को तत्कालीन राज्यपाल विनोद चंद्र पांडेय ने मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। तब नीतीश कुमार भी इस बात से बखूबी वाकिफ थे कि उनके पास पर्याप्त बहुमत नहीं है। लेकिन अटल सरकार की मेहरबानी से नीतीश ने मुख्यमंत्री की शपथ ले ली। अविभाजित बिहार की कुल 324 विधानसभा सीटों में से सरकार बनाने के लिए कम से कम 163 के आंकड़े की आवश्यकता थी। नीतीश कुमार ने 151 विधायकों के समर्थन का दावा किया वहीं लालू के पाले में करीब 159 विधायक थे।
शहाबुद्दीन ने दिखाया अपने बाहुबल और राजनीतिक कुशलता का दम
इधर नीतीश के मुख्यमंत्री बनते ही लालू समर्थन सड़क पर आ गए और जोरदार प्रदर्शन शुरू कर दिया। उनका सीधा निशाना उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस और राज्यपाल वी. सी. पांडेय थे। उस समय बिहार के सिवान जिले के सांसद बाहुबली डॉक्टर मोहम्मद शहाबुद्दीन हुआ करते थे। राजद के साथ-साथ शहाबुद्दीन की बिहार की राजनीति में तूती बोलती थी। उधर कांग्रेस के 23 विधायक सरकार बनाने में सबसे महत्वपूर्ण किरदार अदा करने वाले थे। खरीदफरोख्त (हॉर्स ट्रेडिंग) की भी पूरी आशंका थी। इससे पहले के नीतीश का खेमा इन विधायकों से संपर्क साध पाता सभी 23 विधायकों को राजधानी पटना के पाटलिपुत्र स्थित होटल अशोका पहुंचा दिया गया। जब तक राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ नहीं ले ली शहाबुद्दीन की इस होटल पर बाज जैसी नजर थी। शहाबुद्दीन की इजाजत के बिना यहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता था।
और आ गया नीतीश कुमार के कुर्सी छोड़ने का समय
उधर लगातार चौतरफा दबाव के बाद राज्यपाल ने नीतीश कुमार को विश्वास प्रस्ताव (कॉन्फिडेंस मोशन) का सामना करने को कहा। 9 मार्च 2000 को कहलगांव से कांग्रेस विधायक सदानंद सिंह को विधानसभा स्पीकर चुना गया। विधानसभा स्पीकर के चुनाव से एनडीए ने हार और फजीहत के डर से खुद को बाहर ही रखा। इधर नीतीश कुमार को यह बात मालूम थी के उनके पास पर्याप्त संख्या मौजूद नहीं है। 10 मार्च 2000 को नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। इसी के साथ नीतीश का मुख्यमंत्री के तौर पर पहला कार्यकाल केवल आठ दिनों में ही समाप्त हो गया। 11 मार्च को राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री के तौर पर तीसरी बार शपथ ली।