नई दिल्ली : ईरान में हुए हालिया राष्ट्रपति चुनाव में इब्राहिम रईसी की जीत हुई है, जिन्हें 'कट्टरपंथी' सोच का नेता बताया जाता है। ईरान में हुए राष्ट्रपति चुनाव और इसके नतीजों पर दुनियाभर से प्रतिक्रिया आ रही है। ये रिएक्शंस बताते हैं कि ईरान के नए नेतृत्व को लेकर दुनिया का रूझान किस तरह का है। ईरान चुनाव पर प्रतिक्रिया देते हुए अमेरिका ने जहां 'अफसोस' जताते हुए कहा कि ईरान के लोगों को अब भी लोकतांत्रिक और निष्पक्ष तरीके से अपना नेता नहीं चुनने दिया जा रहा, वहीं इजरायल ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए ईरान के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति को 'जल्लाद' तक कह डाला है। हालांकि रूस, सीरिया, इराक, तुर्की, संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश भी हैं, जिन्होंने ईरान के नए नेतृत्व को शुभकामनाएं दी हैं। भारत भी उन देशों में शामिल हैं, जिन्होंने ईरान के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति को शुभकामनाएं देते हुए द्विपक्षीय संबंधों के और मजबूत होने की कामना की है।
ईरान के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को बधाई देते हुए भारत-ईरान संबंधों का जिक्र किया। ट्विटर के जरिये दिए इस बधाई संदेश में पीएम मोदी ने कहा, 'इब्राहिम रईसी को इस्लामिक गणराज्य ईरान के राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित होने पर बधाई। मैं भारत एवं ईरान के बीच संबंधों को और मजबूत बनाने के लिए उनके साथ मिलकर काम करने को लेकर उत्सुक हूं।' ईरान का यह चुनाव भारत और ईरान के संबंधों के लिहाज से वाकई कई मायनों में खास है। यहां यह बात गौर करने वाली है कि किन्हीं दो देशों के संबंध सिर्फ उनके बीच के मसलों से ही प्रभावित नहीं होते, बल्कि कई अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां भी होती हैं, जो दो देशों के रिश्तों पर असर डालती हैं। भारत-ईरान के संबंधों में भी यह बात समान रूप से लागू होती है।
ईरान के निर्वतान राष्ट्रपति हसन रूहानी के साथ पीएम मोदी/AP
ईरान का यह चुनाव देश के परमाणु कार्यक्रम और इस मसले पर पश्चिमी देशों के साथ 2015 में हुए समझौते के संदर्भ में बेहद खास है। ईरान के परमाणु कार्यक्रमों से नाराज पश्चिमी देशों ने इसे प्रतिबंधित किया हुआ था, जिनका मानना रहा है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों को लेकर नहीं रहा है। अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों ने ईरान की अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचाया। लेकिन 2015 में अमेरिका की पहल पर सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्यों- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस और जर्मनी के साथ हुए समझौते के बाद ईरान पर से कई प्रतिबंध हटा लिए गए थे, जिसने उसकी आर्थिक गतिविधियों को काफी हद तक रफ्तार दी थी। इस समझौते में ईरान भी शामिल था, जिसे दुनियाभर में P5+1 समझौते के रूप में जाना गया।
ईरान और पश्चिमी देशों के साथ वियना में हुए इस समझौते में तब अमेरिका के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा की भूमिका महत्वपूर्ण रही थी। हालांकि अमेरिका में 2016 में नेतृत्व परिवर्तन के बाद से ही इस पर संकट के बादल मंडराने लगे थे। ओबामा के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बने डोनाल्ड ट्रंप ने 2018 में यह कहते हुए इस समझौते से अमेरिका को अलग कर दिया कि इसमें ईरान को अधिक रियायतें दी गईं और यह अमेरिकी हितों के अनुकूल नहीं है। अमेरिका ने इस कदम के बाद जाहिर तौर पर ईरान पर कई प्रतिबंध लगाए, जिसने तीन साल पहले ही प्रतिबंधों से मिली रियायतों के बाद रफ्तार पकड़नी शुरू की थी। अब जब अमेरिका में एक बार फिर सत्ता परिवर्तन हुआ और जो बाइडन राष्ट्रपति बने तो अमेरिकी नेतृत्व की ओर से आए बयानों से संकेत मिले कि अमेरिका अब फिर से इस समझौते में शामिल हो सकता है। हालांकि ईरान के चुनाव नतीजों के बाद एक बार फिर इस पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं।
ईरान का बशर न्यूक्लियर पावर प्लांट रिएक्टर बिल्डिंग/AP
ईरान और दुनिया के ताकतवर पश्चिमी देशों के बीच परमाणु समझौता फिर से बहाल हो सके, इसे लेकर अप्रैल से ही वियना में बातचीत चल रही है, ताकि अमेरिका, ईरान पर लगी पाबंदियों को हटा सके और समझौते में वापसी कर सके। भारतीय हितों के लिहाज से भी ये बेहद अहम है। लेकिन अब तक जो रिपोर्ट्स सामने आई हैं, उससे जाहिर होता है अभी कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर असहमतियां बरकरार हैं, जिनका समाधान तलाशे जाने की जरूरत है। ईरान में अब रईसी के राष्ट्रपति चुनाव जाने के बाद यह मुद्दा और लटकता नजर आ रहा है। रईसी पश्चिमी देशों के मुखर आलोचक समझे जाते हैं और ऐसे कई मुद्दे हैं, जिन पर उनका पश्चिमी दुनिया से मतभेद रहा है। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण मसला ईरान-इराक युद्ध के बाद बंदी बनाए गए हजारों बंदियों को मृत्युदंड दिया जाना भी है। रईसी मौलवियों के उस समूह का हिस्सा रहे हैं, जिसने 1988 में ईरान के तत्कालीन सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह रुहोल्लाह खोमैनी के आदेश पर हजारों बंदियों को मारने के आदेश पर हस्ताक्षर किए थे। इसके बाद अमेरिका ने रईसी पर प्रतिबंध भी लगाए थे। रईसी के अब ईरान के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद यह देखने वाली बात होगी कि अमेरिका कितनी सहजता के साथ इस समझौते को लेकर आगे बढ़ता है।
भारत इस समझौते को लेकर होने वाले अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर करीब से नजर बनाए हुए है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर हुआ यह समझौता अगर बहाल होता है और उसे प्रतिबंधों से राहत मिलती है तो यह भारतीय हितों के लिहाज से भी अनुकूल होगा। भारत की सबसे बड़ी चाबहार परियोजना के लिए भी ईरान की आर्थिक प्रगति बेहद अहम है, जो पहले ही प्रतिबंधों और फिर कोविड की मार से चरमराई हुई है। चाबहार बंदरगाह भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच व्यापार के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। यह भारत को मध्य एशिया से जुड़ने का सीधा रास्ता देगा। साथ ही रूस और यूरोप से जुड़ने में भी उसे मदद मिलेगी। यही वजह है कि यहां काम जल्द से जल्द पूरा हो, इसके लिए भारत आर्थिक व कूटनीतिक हर मोर्चे पर जुटा हुआ है। भारत की पहल पर अमेरिका ने भी इस परियोजना को लेकर कुछ छूट प्रदान की है, लेकिन प्रतिबंधों में ढील के बगैर ईरानी अर्थव्यवस्था के तेजी पकड़ने की उम्मीद फीकी पड़ सकती है, जिसका असर अंतत: भारत के आर्थिक व व्यापारिक हितों पर भी हो सकता है और प्रतिबंधों में छूट के लिए जरूरी है कि ईरान और पश्चिमी दुनिया के छह देशों के साथ 2015 में हुआ परमाणु समझौता बहाल हो।
चाबहार पोर्ट पर हसन रूहानी/AP
वहीं, ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामनेई के करीबी समझे जाने वाले रईसी के सत्ता में आने के बाद भारत और ईरान के द्विपक्षीय संबंध किस दिशा में बढ़ते हैं, यह देखने वाली बात होगी। यूं तो भारत और ईरान लंबे समय से आर्थिक व सामरिक सहयोगी रहे हैं। दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संबंध भी रहा है और इस्लामिक गणराज्य होने के बावजूद भारत और ईरान के बीच रिश्ते 'मैत्रीपूर्ण' रहे हैं, लेकिन नए नेतृत्व का 'रूढ़िवादी' रूझान आपसी संबंधों को किस तरह आगे बढ़ाता है, यह देखने वाली बात होगी। फिर हाल के दिनों में भारत की नजदीकियां अमेरिका से बढ़ी हैं, जबकि ईरान का दुराव अमेरिका से साफ है। वहीं, ईरान और इजरायल के बीच भी टकराव की स्थिति किसी से छिपी नहीं है, जबकि भारत के रक्षात्मक संबंध इजरायल के साथ विगत कुछ वर्षों में मजबूत हुए हैं। हालांकि ये परिस्थितियां भारत-ईरान के संबंधों में पहले से मौजूद रही हैं, लेकिन अब निजाम बदलने और 'रूढिवादी' चेहरे वाले रईसी को कमान मिलने से कई तरह की अटकलों को बल मिला है। फिर कश्मीर भी एक अहम मसला है, जिसे लेकर ईरान के सर्वोच्च नेता के बयानों ने भारत को पहले ही नाराज किया है। रईसी की अगुवाई वाला नया निजाम इस पर क्या रुख अपनाता है, इस पर भी भारत की नजर करीब से बनी हुई है, जिसने पहले ही स्पष्ट कर रखा है कि इस मसले पर किसी भी तरह का अंतरराष्ट्रीय दखल उसे स्वीकार नहीं है। फिलहाल उम्मीद भारत और ईरान के अच्छे व मजबूत रिश्तों को लेकर ही है, जैसा कि प्रधानमंत्री ने भी अपने ट्वीट में कहा है।
(डिस्क्लेमर: प्रस्तुत लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है)