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Non Communicable Disease: 58 लाख भारतीय हर वर्ष तोड़ देते हैं दम, कोरोना महामारी के बीच बड़ा संकट

Updated Jun 05, 2021 | 19:28 IST

भारत अगर एनसीडी के उभरते संकट को रोकना चाहता है तो प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में नमक, चीनी और वसा की वैज्ञानिक कटौती जरूरी है

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गैर संक्रामक बीमारियों से देश की बड़ी आबादी शिकंजे में
मुख्य बातें
  • 58 लाख भारतीय गैर संक्रामक बीमारियों (एनसीडी) से मर जाते हैं।
  • कैंसर, डायबिटीज, अनियंत्रित हाइपर टेंशन और कार्डियोवस्कुलर बीमारियां शामिल
  • प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में नमक, चीनी और वसा की कटौती जरूरी

नई दिल्ली। इस समय भारत में सबका ध्यान कोविड 19 की दूसरी लहर पर है लेकिन इस समय यह भी जरूरी है कि हम शांत पर घातक दूसरे कारणों पर भी ध्यान दें। गुजरे दो दशक में देश में मौत का एक और अग्रणी कारण उभरा है। एक अनुमान के अनुसार हर साल 5.8 मिलियन (58 लाख) भारतीय गैर संक्रामक बीमारियों (एनसीडी) से मर जाते हैं। इनमें कैंसर, डायबिटीज, अनियंत्रित हाइपर टेंशन और कार्डियोवस्कुलर बीमारियां हैं।इन मारक बीमारियों में से ज्यादातर का इलाज भले मुश्किल है पर आहार में संशोधन करके रोके जा सकते हैं और इसके लिए एक स्वास्थ्यकर नियंत्रण जारी रहने वाली आहार व्यवस्था का समर्थन करने की आवश्यकता है।

आहार में बदलाव जरूरी
अन्य विकासशील देशों की ही तरह भारत में भी डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की खपत बढ़ गई है। आम तौर पर इनमें चीनी, नमक ज्यादा होता है और खराब वसा का उपयोग किया जाता है। इसका उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों में भी होता है और सभी सामाजिक आर्थिक समूहों में। इस तेजी के कारण डिब्बाबंद खाद्यपदार्थों में उपयोग किए जाने वाले तीन नुकसानदेह अवयवों को और सख्ती से नियंत्रित करना जरूरी हो जाता है। इनका उपयोग ज्यादा होना एनसीडी संकट के लिए ईंधन की तरह है।    

बीपीआईएन का क्या है कहना
ब्रेस्टफीडिंग प्रोमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया (बीपीएनआई या भारत में स्तनपान को बढ़ावा देने वालों का संस्थान) ने न्यूट्रीशन एडवोकेसी इन पबलिक इंट्रेस्ट (NAPi या जनहित में पोषण का प्रचार), एपिडेमियोलॉजिकल फाउंडेशन ऑफ इंडिया (ईएफआई यानी महामारी से जुड़ा संगठन) और पेडियैट्रिक्स एंड अडोलसेंट न्यूट्रीशन सोसाइटी (पीएएन या बच्चों और किशोरों के लिए पोषण का काम करने वाला संगठन) ने मिलकर एक वेबिनार का आयोजन किया। इसमें भारत में प्रसंस्कृत और अति प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की खपत को निर्देशित करने के लिए एक मजबूत न्यूट्रीयंट प्रोफाइल मॉडल (एनपीएम) के महत्व पर चर्चा की गई। अग्रणी वैश्विक विशेषज्ञ, चिकित्सक और वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने सहमति की आवश्यकता की चर्चा की खासतौर से बाधाओं जैसे आहार उद्योग के विरोध के प्रकाश में।   


​ब्राजील, मैक्सिको और दक्षिण अफ्रीका ने उठाए खास कदम
ब्राजील, मैक्सिको और दक्षिण अफ्रीका ने इन अवयवों – नमक, चीनी और वसा के लिए वैज्ञानिक सीमा अपना कर एक निर्णायक कदम उठाया है ताकि अपनी आबादी की रक्षा कर सकें, खासकर बच्चों की। न्यूट्रीशन प्रोफाइलिंग खाद्य पदार्थों और पेय पदार्थों के वर्गीकरण की एक वैज्ञानिक विधि है और यह उनके गठन में पोषण के आधार पर होता है। इसका विकास सोडियम, संतृप्त वसा और अतिरिक्त चीनी की खपत कम करने के मुख्य लक्ष्य से किया जाता है।

न्यूट्रीशन प्रोफाइल मॉडल्स (एनपीएम) इन विस्तृत लक्ष्यों को खास खाद्य पदार्थों और पेय में बदलता है जो हमें अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थों (ज्यादा नमक, चीनी और / या संतृप्त वसा) की पहचान और उन्हें अलग करने में हमारी सहायता करता है। एनपीएम द्वारा स्थापित “कट ऑफ” के आधार पर पैक लेबल का अगला हिस्सा उपभोक्ताओं को एक द्रुत और सीधे सपाट तरीके से बताता है कि किसी उत्पाद में अत्यधिक नमक, चीनी और संतृप्त वसा है कि नहीं। इसे तरह उन्हें स्वास्थ्यकर चुनाव करने में सहायता करता है। इसके साथ ही एनपीएम किसी उत्पाद के प्रोमोशन और विपणन पर प्रतिबंध की आवश्यकता के संबंध में मार्गदर्शन कर सकता है। खासकर बच्चों और किशोरों के मामले में।      

नमक, चीनी के अत्यधिक सेवन पर कंट्रोल जरूरी
वैश्विक एक्सपर्ट, स्कूल ऑफ पबलिक हेल्थ, यूनिवर्सिटी ऑफ सॉ पॉलो, ब्राजील में न्यूट्रीशन और जन स्वास्थ्य के प्रोफेसर प्रो. कार्लोस ए मोनटैरियो ने इस बात पर जोर दिया कि तेजी से कार्रवाई करना महत्वपूर्ण है पर यह सीमा निर्धारित करने वाले विज्ञान से अलग नहीं होना भी इतना ही महत्वपूर्ण है। वे स्वास्थ्य और पोषण में सेंटर फॉर एपिडेमियोलॉजिकल स्टडीज इन हेल्थ एंड न्यूट्रीशन के प्रमुख है।  उन्होंने कहा, “एनपीएमएस ऐसे ढांचे हैं जिनका विकास बेहद अनुसंधान और विश्व स्वास्थ्य संगठन के जमीनी अध्ययन और अनुसंधान के बाद होता है। इसमें दुनिया भर के विशेषज्ञ हिस्सा लेते हैं।”


प्रो मोनटैरियो की भूमिका लैटिन अमेरिका के लिए नोवा (एनओवीए) वर्गीकरण और एनपीएम मॉडल के विकास में भी थी। इसे प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के वर्गीकरण के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यवहार माना जाता है। उन्होंने आगे कहा, “डब्ल्यूएचओ के सिआरो (एसईएआरओ) मॉडल को सदस्य देशों की राय से इस क्षेत्र में तैयार किया गया था और यह कोडेक्स एलिमेनटेरियस या फूड कोड से पूरी तरह तालमेल में है। आसान सब्दों में कहा जा सकता है कि भारत के लिए इससे बेहतर समय कभी नहीं रहा जब डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थों पर इस सीमा को नियंत्रित करने की कोशिश की गई हो। मोटापे के बढ़ते स्तर से चिन्तित ब्राजील ने हाल में चिकित्सीय तौर पर साबित सीमा का निर्धारण किया था। समय आ गया है कि भारत भी ऐसा ही करे।”

डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का चलन बढ़ा
भारत में गुजरे कुछ दशक से अति प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ खाने में और खरीदने में प्राथमिकता पा रहा है। उपभोक्ताओं के खरीदने के निर्णय से यही पता चलता है। बिक्री से जुड़े डाटा के विश्लेषण से यह खुलासा होता है कि अति प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की प्रति व्यक्ति बिक्री 2005 में 2 किलो से बढ़कर 2019 में करीब 16 किलो हो गई है। अनुमान है कि 2024 तक यह बढ़कर करीब आठ किलो हो जाएगा। इसी तरह, अति प्रसंस्कृत पेय भी 2005 में दो लीटर से बढ़कर 2019 में 6.5 लीटर हो गया और 2024 में 10 लीटर होने का अनुमान है।

बीपीआईएन की यह चेतावनी
ब्रेस्टफीडिंग प्रोमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया (बीपीएनआई) के संयोजक डॉ अरुण गुप्ता ने चेतावनी दी है कि "जंक" खाद्य पदार्थों के उद्योग के इस जोरदार विकास ने भारतीयों के स्वास्थ्य पर अमिट छाप छोड़ी है। "अब हम दुनिया भर के लिए मोटापे और मधुमेह के केंद्र हैं। कैंसर की दर चिंताजनक गति से बढ़ रही है। युवा हृदय की बीमारी का जोखिम झेल रहे हैं। इस समय चल रही महामारी ने किसी भी संदेह से परे, यह दिखा दिया है कि है, दूसरी बीमारियों का असर कोविड-19 से होने वाली मौतों में हुआ है।

एनपीएम स्वास्थ्यकर और नुकसानदेह खाद्य पदार्थों के बीच अंतर करने में सक्षम है। इसलिए, यह सभी खाद्य और पोषण नियामक नीतियों का मार्गदर्शन कर सकता है, विशेष रूप से चीनी, वसा और सोडियम जैसे संभावित हानिकारक पोषक तत्वों की अत्यधिक मात्रा वाले खाद्य पदार्थों की सही पहचान करने के संबंध में। इससे लोगों को इस चुनौतीपूर्ण समय में अच्छा भोजन विकल्प बनाने में मदद मिलती है।"


पूर्व स्वास्थ्य सचिव का क्या कहना है
भारत के पूर्व स्वास्थ्य सचिव श्री केशव देसिराजू चेतावनी देते हैं, इन नुकसानदेह चीजों के लिए वैज्ञानिक सीमा को अपनाने का रास्ता आसान नहीं होगा। "नियामकों और नीति निर्माताओं को अनिवार्य सीमा निर्धारित करना चाहिए जो डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर हो। चूंकि यह सबके लिए एक होगा इसलिए हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि पूरा बाजार नए मानकों को मानगे और एक होकर लागू करेगा। उद्योग का उपयोग लाभ कमाने के लिए किया जाता है और जब तक हमारे खाद्य और पेय नियामक इसे अनिवार्य नहीं बनाएंगे तब तक वे इसका पालन नहीं करेंगे।”

जानकार अलग लेकिन राय एक जैसी
विशेषज्ञों का मानना है कि दो श्रेणियों के लिए पोषक तत्वों की एक सीमा के साथ एक साधारण पोषक तत्व प्रोफाइल मॉडल- खाद्य और पेय पदार्थ, सबसे अच्छा काम करता है। फ्रंट ऑफ पैकेज लेबल पॉलिसी (एफओपीएल) के सामने कार्यान्वयन और निगरानी के लिए एकल सीमा वाला पोषक प्रोफ़ाइल मॉडल सबसे प्रभावी समाधान रहा है। मजबूत एफओपीएल नीतियों के साथ चिली, इसराइल और मैक्सिको जैसे देशों ने एक पोषक तत्व सीमा के साथ एक मॉडल अपनाया है।


वैज्ञानिक पर सरल दृष्टिकोण की आवश्यकता पर जोर देते हुए प्रो एचपीएस सचदेव ने कहा, हमारी भावी पीढ़ियों के स्वास्थ्य की रक्षा करने और मोटापे तथा अन्य एनसीडी की प्रवृत्तियों को उलटने के लिए हमें सभी डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों में नमक, चीनी और वसा की अधिकतम मात्रा के बारे में सबको जानकारी देनी होगी और इनमें बच्चे भी हैं सहित लोगों को हाथ में लेना होगा। इसलिए विज्ञान आधारित एनपीएम एक सरल चेतावनी लेबल का मार्ग प्रशस्त करेगा और यही हमारी तत्कालिक प्राथमिकता होनी चाहिए।

खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण का यह है मसौदा
2018 में खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण भारत (एफएसएसएआई) ने एफओपीएल के लिए मसौदा नियमन प्रकाशित किया था। बाद में इसे आगे की विवेचना के लिए वापस ले लिया गया। 2019 दिसंबर में, एफएसएसएआई ने सामान्य लेबलिंग विनियमों से एफओपीएल को अलग कर दिया और इस समय एक व्यवहार्य मॉडल के लिए नागरिक समाज, उद्योग और पोषण विशेषज्ञों से परामर्श की मांग रहा है। उपयुक्त ' कट ऑफ ' के बारे में व्यापक अनुसंधान पहले ही हो चुके हैं, जिसमें राष्ट्रीय पोषण संस्थान द्वारा हाल ही में किया गया एक अध्ययन शामिल है जो डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित नमक, चीनी और वसा पर सीमाओं की पुष्टि करता है।

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