- ईंट से साईं बाबा को था बेहद लगाव, सिर रखकर सोते थे।
- ईंट को साईं, वैंकुशा आश्रम से लौटते हुए साथ लाए थे।
- तात्या, साईं को अपना मामा कह कर पुकारते थे।
Sai Kripa: साईं के माता-पिता बालकाल में ही परलोक सिधार गए थे और साईं बालकाल से ही फकीरी का जीवन जीने लगे थे। एक बार वैंकुंशा ने उन्हें देखा और अपने आश्रम में शिक्षा देने के लिए ले आए। साईं यहीं रह कर अपनी दीक्षा लेते और भिक्षा मांगा करते थे।
भिक्षा में वह जो कुछ मांग कर लाते थे उसे उसका उपभोग वह स्वयं नहीं करते थे, वह चिड़िया, जानवर या किसी जरूरतमंद को सामान दे दिया करते थे। वह आश्रम में रहने वाले अन्य शिष्यों से बेहद अलग थे और यही कारण था कि वैकुंशा उन्हें बहुत प्रेम करते थे और बाकी की आश्रम के शिष्य उनसे चिढ़ते थे।
ईंट से लगाव था ये कारण
साईं के पास एक ईंट तब तक रही जब तक वह समाधि नहीं ले लिए। इस ईंट से लगाव के पीछे एक उनके साथ हुई घटना थी। सांईं जब वैंकुशा के आश्रम में पढ़ते थे तब वैंकुंशा को एक दिन अपनी मृत्यु का आभास हुआ। वह साईं को अपनी मृत्यु के पूर्व अपनी सारी शक्तियां दे दीं और वे बाबा को एक जंगल में ले गए।
जंगल में उन्होंने पंचाग्नि तपस्या की। वहां से लौटते वक्त कुछ कट्टरपंथी लोग सांईं बाबा पर ईट बरसाने लगे। यह देख वैंकुशा तुरत वहां आए और साईं का बचाव किया। बचाव में वैंकुशा के सिर पर एक ईंट लग गई और उनके सिर से खून बहने लगा। तब साईं ने अपने कपड़े से उनका खून साफ किया।
वैंकुशा उसी कपड़े का साईं के माथे पर तीन फेरे में बांध दिया और साईं से कहा कि ये तीन फेरे संसार से मुक्त होने और ज्ञान व सुरक्षा के हैं। इसके बाद साईं ने वह ईंट उठा कर अपने झोली में डाल ली जिससे वैंकुशा को चोट लगी थी। इसके बाद बाबा ने जीवनभर इस ईंट को ही अपना सिरहाना बनाए रखा।
ईंट टूट गई तो साईं ने कहा उनके दिन पूरे हुए
सन् 1918 में सितंबर माह में दशहरे के दिन साईं भिक्षाटन को निकले थे। उधर उनके आश्रम में साईं के भक्त सफाई में जुटे थे का उनके भक्त माधव के हाथ से वह ईंट गिरकर टूट गई। यह देख सभी भक्त सकते में आ गए।
बाबा भी भिक्षाटन से वापस आए गए और टूटी हुई ईंट को देख कर मुस्कारा कर बोले कि लगता है उनके दिन अब पूरे हो गए। साईं ने कहा कि ये ईंट उनकी जीवनसंगनी थी और जब वह नहीं रही तो मेरा भी समय समझ लो पूरा हुआ। इसके बाद से ही साईं अपने महासामाधि की तैयारी में लग गए।
तात्या से था बेहद लगाव
दशहरे के कुछ दिन पहले ही सांईं ने अपने एक भक्त रामचन्द्र पाटिल को दशहरे पर 'तात्या' की मृत्यु होने की जानकारी दी थी। तात्या बैजाबाई के पुत्र थे और बैजाबाई सांईं की अनन्य भक्त थीं। तात्या, सांईं को मामा कह कर पुकारते थे। ऐसा माना जाता है कि तात्या को जीवनदान देने के लिए साईं ने अपने शरीर का बलिदान किया था।