- श्री कृष्ण के इस नाम से राजस्थान में एक मंदिर भी काफी प्रसिद्ध है, यह मंदिर सांवलिया सेठ मंदिर है
- सांवलिया सेठ मंदिर राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में स्थित है
- मान्यता के अनुसार लोग अपना बिजनेस बढ़ाने के लिए श्री कृष्ण के रूप सांवलिया सेठ को अपना बिजनेस पार्टनर बना लेते हैं
Sanwalia Seth Temple: भगवान श्री कृष्ण को कई नाम से पुकारा जाता है। इन नामों में एक नाम है 'सांवलिया सेठ'। श्री कृष्ण के इस नाम से राजस्थान में एक मंदिर भी काफी प्रसिद्ध है। यह मंदिर सांवलिया सेठ मंदिर है, जो राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में स्थित है। मान्यता के अनुसार लोग अपना बिजनेस बढ़ाने के लिए श्री कृष्ण के रूप सांवलिया सेठ को अपना बिजनेस पार्टनर बना लेते हैं। लोग अपनी खेती, कारोबार घर का हिस्सेदारी उन्हें देते हैं। यही नहीं हर महीने की कमाई का एक हिस्सा सांवलिया सेठ के मंदिर में दान करते हैं। सांवलिया सेठ के मंदिर के पीछे कई रोचक बातें हैं आइए जानते हैं इनके बारे में..
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सांवलिया सेठ की पूजा करती थी मीरा बाई
हिंदू धर्म के अनुसार मीरा बाई सांवलिया सेठ की ही पूजा किया करती थी। जिन्हें वह गिरधर गोपाल भी कहती थीं। मीरा बाई संतों की जमात के साथ भ्रमण करती थीं जिनके साथ श्री कृष्ण की मूर्तियां रहती थीं। दयाराम नामक संत की जमात के पास भी ऐसी ही मूर्तियां रहती थीं। एक बार औरंगजेब की सेना मंदिर में तोड़-फोड़ करते हुए मेवाड़ पहुंची और वहां पर उसकी मुगल सेना को उन मूर्तियों के बारे में पता लगा तो वह उन्हें ढूंढने लगे। यह जानकर संत दयाराम ने इन मूर्तियों को बागुंड-भादसौड़ा की छापर में एक वट-वृक्ष के नीचे गड्ढा खोदकर छिपा दिया।
फिर 1840 में मंडफिया ग्राम निवासी भोलाराम गुर्जर नामक ग्वाले को सपना आया की भादसोड़ा-बागूंड गांव की सीमा के छापर में भगवान की 4 मूर्तियां भूमि में दबी हुई हैं। सपने के बाद भूमि की उस जगह पर खुदाई की गई तो सभी को आश्चर्य हुआ। वहां से एक जैसी 4 मूर्तियां निकली। देखते ही देखते ये खबर सब तरफ फैल गयी और आस-पास के लोग प्राकट्यस्थल पर एकत्रित होने लगे। फिर सर्वसम्मति से 4 में से सबसे बड़ी मूर्ति को भादसोड़ा ग्राम ले जाई गई, भादसोड़ा में प्रसिद्ध गृहस्थ संत पुराजी भगत रहते थे। उनके निर्देशन में उदयपुर मेवाड़ राज-परिवार के भींडर ठिकाने की ओर से सांवलिया जी का मंदिर बनवाया गया।
यह मंदिर सबसे पुराना मंदिर है इसलिए यह सांवलिया सेठ प्राचीन मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंझली मूर्ति को वहीं खुदाई की जगह स्थापित किया गया इसे प्राकट्य स्थल मंदिर भी कहा जाता है। सबसे छोटी मूर्ति भोलाराम गुर्जर द्वारा मंडफिया ग्राम ले जाई गई जिसे उन्होंने अपने घर के परिण्डे में स्थापित करके पूजा आरंभ कर दी। चौथी मूर्ति निकालते समय खण्डित हो गई जिसे वापस उसी जगह पधरा दिया गया।
(डिस्क्लेमर : यह पाठ्य सामग्री आम धारणाओं और इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के आधार पर लिखी गई है। टाइम्स नाउ नवभारत इसकी पुष्टि नहीं करता है।)