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उत्तराखंड में रक्षाबंधन पर यहां मेले में होती है पत्थरबाजी, सदियों से चली आ रही परंपरा

Updated Aug 07, 2019 | 14:42 IST | टाइम्स नाउ डिजिटल

रक्षाबंधन पर उत्तराखंड में एक ऐसा मेला लगता हैं जहां लोग एक दूसरे पर पत्थरबाजी करते हैं। यह पत्थरबाजी तब तक होती हैं जब तक एक इंसान के शरीर के बराबर खून न निकल जाए।

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तस्वीर साभार:&nbspInstagram
Stone pelting festival Bagwal

उत्तराखंड के देवीधुरा नामक स्थान पर लगने वाला बगवाल मेला कुमांऊ का बेहद प्रसिद्ध मेला है। इस मेले में पत्थरबाजी के पीछे एक पौराणिक कथा भी प्रचलित है। पत्थरबाजी में आसपास के चार खाप यानी गांव वाले शामिल होते हैं और एक दूसरे पर पत्थरबाजी करते हैं। इस पत्थरबाजी के पीछे देवी को प्रसन्न करना है। ताकि उनके गांवों में शांति और आपदाएं न आएं।

ऐसी मान्यता है कि देवीधुरा के सघन वन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से बराही देवी ने यहां के लोगों को मुक्ति दिलाई थी और इसके बदलने उन्होंने हर साल नरबलि की मांग की थी।

नरबलि बंद हुई तो शुरू हुआ खून बहाने का सिलसिला
पौराणिक कथा के अनुसार रक्षाबंधन पर हर साल चारों खाप में से एक नर की बलि देने की परंपरा थी। एक बार एक महिला के पोते की बारी आई नरबलि देने की तो महिला ने अपने पोते की नरबलि देने से इंकार कर दिया। तब चारो खापों को ये डर समा गया कि यदि नरबलि नहीं दी गई तो देवी मां नाराज हो जाएंगी, लेकिन काफी विचार विमर्श के बाद यह फैसला लिया गया कि चारो खापों के लोग मिलकर हर साल रक्षाबंधन के दिन इतना खून बहाएंगे जितना की एक इंसान के पूरे शरीर में होता है। उस दिन से पत्थरबाजी की परंपरा शुरू हो गई।

संकरी गुफा में है माता का मंदिर
यहां करीब एक हफ्ते का मेला लगता है लेकिन पत्थरबाजी रक्षाबंधन पर ही होती है। इस अनूठे मेले में पत्थरों का रोमांचकारी युद्ध होता है। चंपावत जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर अल्मोड़ा-लोहाघाट

मार्ग पर बसा देवीधुरा में स्थित माता का मंदिर प्राकृतिक गुफा में है। मंदिर तक पहुंचने के लिए संकरी गुफा है। मंदिर के पास ही खोलीखांड दुबाचौड़ का लंबा-चौड़ा मैदान है और यहीं पर वह मेला लगता है। इस मेले में लमगडिया, चम्याल, गहरवाल और बालिग खाप शामिल होते हैं और चारों खापों से जुड़े आसपास के गांव के लोग इसमें हिस्सा लेते हैं।

जानें ये आश्चर्यजन और रोचक बातें

  • युद्ध के दौरान घायल लड़ाके पत्थरों की चोट को माता का प्रसाद मानते हैं।
  • युद्ध के दौरान बांस की बनी छतोलियों से लड़ाके अपना बचाव करते हैं। इस चोट पर किसी तरह की मरहम पट्टी नहीं की जाती।
  • युद्ध जब हो रहा होता है तब मंदिर के पुजारी मंदिर में बैठकर मां बराही की पूजा अर्चना करते रहते हैं।
  • पुजारी जब मैदान में पहुंच शंखनाद करते हैं तो पत्थरों के इस खेल को रोक दिया जाता है। इसके बाद चारों खापों के योद्धा आपस में गले मिलते हैं।
  • युद्ध से पहले मां बराही की प्रतिमा को को चारों खाप के लोग नंदगृह ले जाते हैं ओर वहां उन्हें दूध से स्नान कराकर परिधान से सुसज्जित किया जाता है।
  • पत्थर फेंकने का यह कार्यक्रम दोपहर के समय लगभग 10-15 मिनटों का होता है।

घायल होने वाले श्रद्धालु को ऐसी ज्वलनशील जहरीली घास लगाकर ठीक किया जाता है जिसे आम आदमी के छूने भर से शरीर में उठने वाली व्यापक खुजली से मौत भी हो सकती है। अनूठे आयोजन में नाबालिग भाग नहीं ले सकते। पत्थरों के वजन की कोई बंदिश नहीं होती अर्थात योद्धा कितना भी भारी पत्थर उठा करके एक दूसरे को मार सकते हैं।

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