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Tulsi Vivah 2020 : इस व‍िधि से करें शाल‍िग्राम संग तुलसी जी का व‍िवाह, जानें क्‍या है आज का शुभ मुहूर्त

Updated Nov 25, 2020 | 08:02 IST

Tulsi Vivah vrat vidhi : कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी यानी 25 नवंबर को तुलसी विवाह होगा। इस दिन देवउठनी एकादशी भी होती है। तुलसी विवाह के साथ आइए इस अवसर पर आपको इसकी पौराणिक कथा के बारे में भी बताएं।

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Tulsi Vivah : Bhagwan Shaligram wedding with Tulsi
मुख्य बातें
  • तुलसी विवाह करने से मनुष्य को कन्यादान समान पुण्य मिलता है
  • तुलसी विवाह भगवान शालिग्राम जी से किया जाता है
  • माता तलुसी पूर्व जन्म में वृंदा के नाम से जानी जाती थीं

25 नवंबर को माता तुलसी का विवाह भगवान शालिग्राम के साथ किया जाता है और इस शुभ दिन को देवउठनी एकादशी के रूप में भी मनाया जाता है। हिंदू धर्म में तुलसी विवाह का बहुत महत्व माना गया है। मान्यता है कि जो मनुष्य तुलसी विवाह का अनुष्ठान करता है उसे उतना ही पुण्य प्राप्त होता है, जितना कन्यादान करने से प्राप्त होता है। भगवान विष्णु के अवतार  शालिग्राम के साथ तुलसी का विवाह करने से महिलाओं को सुख और सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

माता तुलसी देवी लक्ष्मी का ही अवतार मनी गई हैं और यही कारण है कि तुलसी माता की पूजा से देवी लक्ष्मी भी प्रसन्न होती है। तो आइए संक्षेप में आपको तुलसी विवाह की विधि बताएं और साथ ही इस विवाह से जुड़ी पौराणिक कथा से परिचित कराएं।

विवाह की पूजन विधि (Tulsi Vivah Pujan Vidhi)

तुलसी विवाह करने के लिए तुलसी माता के चारों तरफ पहले मंडप बना लें और देवी तुलसी को लाल चुनरी ओढ़ाएं। सुहाग और श्रृंगार की सारी सामग्री देवी को समर्पित करें और इसके बाद गणपति पूजा करें और फिर शालिग्राम जी के साथ देवी तुलसी का विवाह करें। शालिग्राम जी को सिंहासन के साथ देवी तुलसी की सात बार परिक्रमा कर लें। फिर आरती कर विवाह के मंगलगीत गाएं।

जानें, तुलसी विवाह का शुभ मुहूर्त: (Tulsi Vivah 2020 shubh muhurat)

एकादशी तिथि प्रारंभ- 25 नवंबर, बुधवार, सुबह 2:42 बजे से

एकादशी तिथि समाप्त- 26 नवंबर, गुरुवार, सुबह 5:10 बजे तक

द्वादशी तिथि प्रारंभ- 26 नवंबर, गुरुवार, सुबह 05 बजकर 10 मिनट से

द्वादशी तिथि समाप्त- 27 नवंबर, शुक्रवार, सुबह 07 बजकर 46 मिनट तक

ये है तुलसी विवाह की पौराणिक कथा (Tulsi Vivah Ki Kahani)

पौराणिक कथाओं के अनुसार, माना जाता है कि एक बार राक्षस कुल में एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम वृंदा रखा गया। वृंदा शुरू से ही भगवान विष्णु की परम भक्त थी। वृंदा बड़ी हुई तब उसका विवाह असुर राज जलंधर से हो गया। वृंदा की पतिव्रता और भगवान विष्णु की भक्त होने के कारण उसके पति जलंधर की शक्तियां और भी ज्यादा बढ़ गईं। जिसके बाद जलंधर नहीं सभी देवी देवताओं को परेशान करना शुरू कर दिया। जब उसके अत्याचार बहुत ज्यादा बढ़ गए तब भगवान विष्णु ने वृंदा के पतिव्रता धर्म को नष्ट करने के लिए जलंधर का रूप धारण कर लिया और वृंदा का पतिव्रता धर्म भ्रष्ट कर दिया। जिस वजह से जालंधर की शक्तियां कम हो गई और वह देवताओं से युद्ध करते समय मारा गया।

माना जाता है की जब वृंदा को भगवान विष्णु के इस छल के बारे में पता चला तब उसने उन्हें वही पत्थर का बन जाने का श्राप दे दिया। जिसके बाद माता लक्ष्मी ने और सभी देवी देवताओं ने वृंदा से अपना श्राप वापस लेने का आग्रह किया। वृंदा ने उनका कहा माना और श्राप वापस ले लिया लेकिन उसी समय वृंदा ने खुद को पवित्र अग्नि में भस्म कर लिया, उसी अग्नि की राख से एक पौधा होगा जिसे आज हम तुलसी के पौधे के नाम से जानते हैं। उसी समय भगवान विष्णु ने कहा था कि इस पृथ्वी पर जब-जब भी मेरी पूजा होगी तब-तब इस तुलसी की भी पूजा होगी और मेरे किसी भी पूजा को तब तक संपन्न नहीं माना जाएगा जब तक कि उसमें तुलसी के पत्ते ना चढ़ाएं गए हों।

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