- गत 15 जून को गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुई खूनी झड़प
- इस घटना के बाद सीमा पर तनाव का माहौल है, दोनों देशों के बीच बातचीत जारी है
- भारत ने स्पष्ट कहा है कि वह अपनी संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता से समझौता नहीं करेगा
गलवान घाटी के खूनी संघर्ष के बाद वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के बीच तनाव काफी बढ़ा हुआ है। चीन के खिलाफ भारत में जनभावनाएं जोर मार रही हैं। सैनिकों की शहादत का बदला और उसके सामानों के बहिष्कार की मांग की जा रही है। इस घटना के बाद भारत ने अपने तेवर नरम नहीं किए हैं। सीमा पर किसी भी तरह की चीनी हिमाकत का जवाब देने के लिए उसने पुख्ता तैयारी की है। हां, इतना जरूर है कि तनाव कम करने के लिए सैन्य एवं कूटनीतिक स्तर पर बातचीत का दौर जारी है। भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि एलएसी पर किसी तरह की गुस्ताखी अब वह बर्दाश्त नहीं करेगा। सरकार ने जरूरत पड़ने पर सेना को हथियार चलाने की छूट भी दे दी है। भारत का यह बड़ा रणनीतिक बदलाव है। चीन को स्पष्ट संकेत दिया गया है कि अपने हितों एवं सीमा की सुरक्षा एवं उसे सबक सिखाने के तत्काल फैसला करने से वह पीछे नहीं हटेगा। भारत का यह फैसला चीन को मिर्ची की तरह लगा है।
भारत-चीन के बीच 4000 किलोमीटर लंबी सीमा
लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक भारत और चीन के बीच करीब 4000 किलोमीटर की लंबी सीमा रेखा है। समय-समय पर चीन अलग-अलग जगहों पर अतिक्रमण करता रहता है। अरुणाचल प्रदेश पर वह अपना दावा करता है। अब तो गलवान घाटी पर भी करने लगा है। 1962 के युद्ध के बाद उसने लद्दाख में धीरे-धीरे भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करने की कोशिश की है। उसे भारत से टकराव में डर नहीं लगता है। जबकि जरूरी है कि चीन को उसी की भाषा में समझा जाए जो भाषा वह समझता है। भारतीय चेतना 'वसुधैव कुटुंबकम' की रही है। देश का राजनीतिक नेतृत्व भी इसे मानता आया है लेकिन ध्यान से देखें तो क्या यह विश्व सचमुच में एक परिवार है। इस आध्यात्मिक एवं दार्शनिक सोच को लेकर आप चीन जैसे चालबाज एवं धोखेबाज देश से निपट नहीं सकते। सभी देश के अपने राष्ट्रीय हित होते हैं और इस राष्ट्रीय हितों के अनुरूप ही सभी को अपनी रणनीति बनानी होती है। इसमें अपनी सीमा की सुरक्षा करना भी शामिल है।
अमेरिका के लिए चुनौती बन गया है चीन
चीन वैश्विक पटल पर एक महाशक्ति के रूप में उभर चुका है। वह अब सीधे तौर पर अमेरिका को चुनौती दे रहा है। चीन की महात्वाकांक्षाओं पर पर किसी तरह का अंकुश नहीं है। वह अपनी विस्तारवादी मानसिकता को लगातार आगे बढ़ा रहा है। भारत को लेकर चीन की नीयत साफ नहीं है। एक बाजार के रूप में वह भारत का इस्तेमाल तो खूब कर रहा है लेकिन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में जब भारत का कद बढ़ाने की बात आती है तो वह उसमें अंडंगा लगाने से पीछे नहीं हटता। भारत के साथ वह उतनी ही मेलजोल या सहयोग बनाए रखता है जितना कि उसके व्यापार के लिए जरूरी है। वह एक तरफ अपने व्यापार एवं बाजार के लिए भारत के साथ हाल मिलाता है तो दूसरी तरफ नई दिल्ली को भटकाए एवं उलझाए रखने के लिए पाकिस्तान के जरिए कुटिल चाल चलने एवं पैंतरेबाजी करने से बाज नहीं आता।
भारत को उलझाए रखने की है उसकी साजिश
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता की बात हो या मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने की। इन दोनों ही मामलों में उसकी भारत विरोधी मानसिकता देखी जा सकती है। चीन की मंशा भारत को पाकिस्तान के साथ उलझाए रखने की रही है और वह उसमें कामयाब भी होता रहा है। उसे पता है कि आपसी समस्याओं एवं पश्चिमी सीमा पर उलझा भारत उसके लिए चुनौती नहीं बन सकता। लेकिन चीन की इस नीयत को भारत कुछ समय से पहचान चुका है। उसके कुटिल चालों का जवाब देते हुए भारत ने विगत वर्षों में अपनी तरक्की एवं सहयोग की भावना से दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बनाई है। वैश्विक पटल पर आज भारत एक मजबूत एवं जिम्मेदार राष्ट्र के रूप में उभरा है।
चीन के अपने पड़ोसियों के साथ रिश्ते ठीक नहीं
दुनिया में भारत के बढ़ते कद को देखते हुए वैश्विक संस्थाओं में उसकी भागीदारी बढ़ाए जाने की बात की जाने लगी है। दुनिया के प्रमुख विकसित देशों के साथ भारत के रिश्ते और प्रगाढ़ हुए हैं और नई रणनीति एवं सामरिक साझेदारी बन रही है। ये सारी बातें चीन को पच नहीं रही है। अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए वह बार-बार 1962 के युद्ध का हवाला देकर भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की असफल कोशिश करता है। वह नेपाल, श्रीलंका और मालदीव के जरिए भारत के लिए मुश्किलें खड़ी करने से बाज नहीं आता। चीन की विस्तारवादी एवं साम्राज्यवादी मंशा का पता इस बात से भी चलता है कि उसके अपने पड़ोसी देशों के साथ के रिश्ते बिल्कुल ठीक नहीं हैं।
चीन की विस्तारवादी नीति सभी के लिए खतरा
वियतनाम, फिलीपींस, हांगकांग, दक्षिण चीन सागर, पूर्वी सागर हर जगह वह अपनी ताकत का धौंस जमा रहा है। अपने पड़ोसी एवं आसपास के देशों के साथ उसने शत्रुतापूर्ण रवैया अपना रखा है लेकिन भारत को घेरने एवं नुकसान पहुंचाने के लिए वह नेपाल, मालदीव और श्रीलंका को कर्ज के जाल में फंसाकर भारत विरोधी हितों को आगे बढ़ाने एवं सामरिक बढ़त पाने के लिए कुचक्र रचता रहा है। चीन की अपनी सैन्य ताकत एवं अर्थव्यवस्था की ताकत का नशा सिर चढ़कर बोलने लगा है। वह अब किसी की सुन नहीं रहा। दक्षिण चीन सागर पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को उसने कूड़ेदान में फेंक दिया। ऐसे में यह जरूरी है कि उस पर नकेल कसने के लिए दुनिया के देश गंभीरता से विचार करें। चीन को नियंत्रित करने के लिए दुनिया को एक दीर्घकालिक रणनीति बनानी होगी। चीन केवल भारत की समस्या नहीं है बल्कि उसकी विस्तारवादी नीति दुनिया के सभी मानवतावादी एवं लोकतांत्रिक देशों के लिए खतरा बन गई है।