मुख्य बातें
- आरती करने से पूजा की भूल-चूक माफ हो जाती है
- प्रभु की आरती कर लेने भर से उसे संपूर्ण पुण्य लाभ की प्राप्ति होती है
- आरती को 'आरार्तिक' और 'नीराजन' के नाम से भी जाना जाता है
कोई भी व्रत या पूजा जब की जाती है तो उसका समापन भगवान की आरती के साथ ही होता है। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि भले ही आरती अंत में होती है, लेकिन आरती के बिना पूजा पूर्ण भी नहीं होती है। कई बार समय अभाव के कारण या किसी भी कारण वश जब मनुष्य विधि-विधान से पूजा नहीं कर पाता तो ऐसी अवस्था में प्रभु की आरती कर लेने भर से उसे संपूर्ण पुण्य लाभ की प्राप्ति होती है। इसलिए आरती का पूजा में सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है, लेकिन आरती अंत में ही करनी चाहिए। ऐसा क्यों? आइए आपको बताएं।
आरती का जानें महत्व
आरती को 'आरार्तिक' और 'नीराजन' के नाम से भी जाना जाता है। आरती पूजा के अंत में करने का सबसे प्रमुख कारण प्रभु से क्षमा याचना होता है। यानी पूजन में जो गलती होती है, उसे आरती करके पूर्ति की जाती है। ऐसा पुराणों में भी वर्णित है। पुराणों में लिखे इस चौपाई से आप आरती के महत्व को समझ सकते हैं।
मंत्रहीनं क्रियाहीनं यत;पूजनं हरे: !
सर्वे सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे। !
यानी पूजा में यदि कोई मंत्र गलत पढ़ा गया हो या मंत्रजाप न किया गया हो अथवा क्रियाहीन होने पर भी आरती कर लेने से पूजा में सारी पूर्णता आ जाती है। इसलिए जब भी आरती करनी चाहिए ढोल, नगाड़े, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों या जय-जयकार के साथ करनी चाहिए। साथ ही पात्र में घी की बाती या कपूर जलाकर आरती करना चाहिए। पुराणों में उल्लेखित है कि,
मंत्रहीनं क्रियाहीनं यत;पूजनं हरे: !
सर्वे सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे। !
यानी पूजा में यदि कोई मंत्र गलत पढ़ा गया हो या मंत्रजाप न किया गया हो अथवा क्रियाहीन होने पर भी आरती कर लेने से पूजा में सारी पूर्णता आ जाती है। इसलिए जब भी आरती करनी चाहिए ढोल, नगाड़े, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों या जय-जयकार के साथ करनी चाहिए। साथ ही पात्र में घी की बाती या कपूर जलाकर आरती करना चाहिए। पुराणों में उल्लेखित है कि,
ततश्च मूलमन्त्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम् ।
महानीराजनं कुर्यान्महावाधजयस्वनै: !!
प्रज्वालयेत् तदार्थ च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विष्मा नेकवार्तिकम्।!
यानी आरती करते समय हमेशा एक, पांच, सात या उससे भी अधिक बत्तियों का दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए। आरती के पांच अंग होते हैं, प्रथम दीपमाला से, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल के पत्तों से और पांचवे साष्टांग दण्डवत से आरती करना चाहिए।
इस विधि से करनी चाहिए प्रभु की आरती (Aarti ke Niyam)
प्रभु की आरती का एक नियम होता है यानी आरती करते समय हर किसी को जान लेना चाहिए कि प्रभु के समक्ष दीपक कब और कैसे घुमाना चाहिए। आरती करते समय भगवान की प्रतिमा के चरणों में आरती को चार बार घुमाएं, दो बार नाभि प्रदेश में, एक बार मुखमंडल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमाएं। तभी आरती संपूर्ण होती है। आरती करते हुए एक हाथ से थाल पकड़ना चाहिए और दूसरे हाथ से थाल वाला हाथ की कोहनी पकड़नी चाहिए।
महानीराजनं कुर्यान्महावाधजयस्वनै: !!
प्रज्वालयेत् तदार्थ च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विष्मा नेकवार्तिकम्।!
यानी आरती करते समय हमेशा एक, पांच, सात या उससे भी अधिक बत्तियों का दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए। आरती के पांच अंग होते हैं, प्रथम दीपमाला से, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल के पत्तों से और पांचवे साष्टांग दण्डवत से आरती करना चाहिए।
इस विधि से करनी चाहिए प्रभु की आरती (Aarti ke Niyam)
प्रभु की आरती का एक नियम होता है यानी आरती करते समय हर किसी को जान लेना चाहिए कि प्रभु के समक्ष दीपक कब और कैसे घुमाना चाहिए। आरती करते समय भगवान की प्रतिमा के चरणों में आरती को चार बार घुमाएं, दो बार नाभि प्रदेश में, एक बार मुखमंडल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमाएं। तभी आरती संपूर्ण होती है। आरती करते हुए एक हाथ से थाल पकड़ना चाहिए और दूसरे हाथ से थाल वाला हाथ की कोहनी पकड़नी चाहिए।