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Gaya ji pind daan : गया जी में क्‍यों क‍िया जाता है पिंडदान, पौराणिक कथा से जानें इसका महत्‍व

Updated Sep 19, 2021 | 22:08 IST

gaya ji main pind daan ka mahatva : पिंडदान देश के कई स्थानों पर किया जाता है, लेकिन बिहार के गया में पिंडदान का एक अलग ही महत्व है। जानें इससे जुड़ी पौराण‍िक कथा।

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Gaya Ji mein Pind Daan ka mahatva
मुख्य बातें
  • 2021 में 20 सितंबर से हो रहा है पितृ पक्ष आरंभ।
  • गरुड़ पुराण के आधार काण्ड में गया में पिंडदान का किया गया है वर्णन।
  • गया में भगवान विष्णु जल के रूप में हैं विराजमान, यहां पिंडदान करने से पितरों को मिलती है मुक्‍त‍ि

gaya ji main pind daan Kyon karte hain : पितृ पक्ष के बारे में मान्‍यता है क‍ि यमराज भी इन दिनों पितरों की आत्मा को मुक्त कर देते हैं ताकि 16 दिनों तक वह अपने परिजनों के बीच रहकर अन्न और जल ग्रहण कर संतुष्ट हो सकें। पितृपक्ष को श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है, इस दौरान पितरों का श्राद्ध और तर्पण किया जाता है। पुराणों के अनुसार मृत्यु के बाद पिंडदान करना आत्मा की मोक्ष प्राप्ति का सहज और सरल मार्ग है।

पिंडदान देश के कई स्थानों पर किया जाता है, लेकिन बिहार के गया में पिंडदान का एक अलग ही महत्व है। ऐसा माना जाता है कि गया धाम में पिंडदान करने से 108 कुल और 7 पीढ़ियों का उद्धार होता है। गया में किए गए पिंडदान का गुणगान भगवान राम ने भी किया है। कहा जाता है कि इसी जगह पर भगवान राम और माता सीता ने राजा दशरथ का पिंडदान किया था। गरुड़ पुराण के अनुसार यदि इस स्थान पर पिंडदान किया जाए तो पितरों को स्वर्ग मिलता है। स्वयं श्रीहरि भगवान विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे पितृ तीर्थ भी कहा जाता है। 

गया जी में पिंडदान का महत्व

गया जी में पिंडदान का विशेष महत्व है, हर साल यहां लाखों की संख्या में लोग अपने पूर्वजों का पिंडदान करने आते हैं। मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से मृत आत्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। साथ ही उसकी आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है। स्वयं भगवान विष्णु यहां पर जल के रूप में विराजमान हैं। गरुण पुराण में भी गया में पिंडदान का विशेष महत्व बताया गया है।

गया जी में पिंडदान की पौराण‍िक कथा 

गरुड़ पुराण के आधार काण्ड में गया के बारे में उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार जब ब्रह्मा जी श्रष्टि की रचना कर रहे थे, उस समय असुर कुल में गया नाम के एक असुर की रचना हुई। उसने किसी असुर स्त्री की कोख से जन्म नहीं लिया था, इसलिए उसमें असुरों वाली कोई प्रवृत्ति नहीं थी। ऐसे में उसने सोचा कि यदि वह कोई बड़ा काम नहीं करेगा तो उसे अपने कुल में सम्मान नहीं मिलेगा। यह सोचकर वह भगवान विष्णु की कठोर तपस्या करने लीन हो गया। कुछ समय पश्चात गयासुर की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे साक्षात दर्शन दिया और उसे वरदान मांगने को कहा।

यह सुन गयासुर ने भगवान विष्णु से कहा कि आप मेरे शरीर में साक्षात वास करें ताकि जो मुझे देखे उसके समस्त पाप नष्ट हो जाएं, वह जीव पुण्य आत्मा हो जाए। तथा उसे स्वर्ग में स्थान मिले। श्रीहरि ने उसे यह वर दे दिया, इसके बाद उसे जो भी देखता उसके समस्त कष्टों का निवारण हो जाता और दुख दूर हो जाते।

यह देख सारे देवतागण चिंतित हो गए और भगवान विष्णु की शरण में आए। भगवान विष्णु ने देवताओं को आश्वासन दिया कि उसका अंत जरूर होगा, यह सुन सभी देवता अपने अपने धाम वापस लौट गए। तभी कुछ दिन बाद गयासुर भगवान विष्णु की भक्ति में लीन होकर कीकटदेश में शयन करने लगा, उसी समय वह भगवान विष्णु के गदा से मारा गया। परंतु मरने से पहले उसने भगवान विष्णु से एक वर मांगा कि मेरी इच्छा है कि आप सभी देवी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें और यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए।

इसे सुन श्रीहरि ने गयासुर को आशीर्वाद दिया कि यहां पितरों का श्राद्ध तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। गरुड़ पुराण के अनुसार तब से यहां पितरों का श्राद्ध तर्पण होने लगा।

भगवान विष्णु साक्षात करते हैं यहां वास

गरुण पुराण के अनुसार भगवान विष्णु स्वयं यहां जल के रूप में विराजमान हैं। इसलिए गरुण पुराण में वर्णित है कि 21 पीढ़ियों में से किसी एक भी व्यक्ति का पैर यदि फल्गु में पड़ जाए तो उसके समस्त कुल का उद्धार हो जाता है।

भगवान राम ने भी यहां किया था राजा दशरथ का पिंडदान

गरुण पुराण के अनुसार भगवान राम और माता सीता ने भी यहां राजा दशरथ का पिंडदान किया था। गरुण पुराण में उल्लेखित एक कथा के अनुसार भगवान राम माता सीता और लक्ष्मण जी के साथ पिता राजा दशरथ का पिंडदान करने के लिए अयोध्या आए थे। वह पिंडदान की सामाग्री एकत्रित करने के लिए चले गए और सीता जी फल्गु नदी के किनारे बैठकर उनके आने का इंतजार कर रही थी। लेकिन तभी राजा दशरथ जी की आत्मा ने पिंडदान करने की मांग की। ऐसे में सीता जी ने फल्गु नदी के साथ वटवृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर पिंडदान कर दिया था।

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