- सावन के महीने का बेहद महत्व है
- सावन के महीने में भक्त भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं और भगवान शिव को धतूरा बेल पत्र अर्पित करते हैं
- सावन माह में भगवान शिव की विधि विधान से पूजा करने पर हर मनोकामना पूरी होती हैं
Worship Of Lord Shiva: सावन का महीना चल रहा है। यह महीना शिव भक्तों के लिए सबसे खास महीना होता है। सावन के महीने में भक्त भगवान शिव की आराधना में लीन हो जाते हैं। इसके अलावा मंदिरों में भगवान शिव का जलाभिषेक करने के लिए भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती हैं। सावन के महीने का बेहद महत्व है। सावन के महीने में भक्त भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं और भगवान शिव को धतूरा बेल पत्र अर्पित करते हैं। मान्यता है कि सावन माह में भगवान शिव की विधि विधान से पूजा करने पर हर मनोकामना पूरी होती हैं, लेकिन अगर आप भगवान शिव की पूजा करते वक्त शंख का इस्तेमाल कर रहे हैं तो सावधान हो जाएं, क्योंकि भगवान शिव की पूजा करते वक्त शंख का प्रयोग वर्जित माना जाता है। आइए जानते हैं जानिए इसके पीछे क्या है कारण...
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शिव की पूजा में न करें शंख का प्रयोग
हिंदू धर्म में वैसे तो शंख का विशेष महत्व है। हर मांगलिक कार्य में शंख बजाना बेहद शुभ माना जाता है। शंख की ध्वनि पूरे वातावरण को सकारात्मक कर देती है। हिंदू धर्म में पूजा करते वक्त शंख को भगवान की आरती में रखा जाता है और उसके जल को आरती के उपरांत सभी पर छिड़का जाता है। शंख को रखने से घर से दरिद्रता दूर होती है व सकारात्मक ऊर्जा का वास होता है, लेकिन भगवान शिव की पूजा में शंख का प्रयोग वर्जित माना जाता है। इसका उल्लेख शिव पुराणों में भी किया गया है। शिव पुराणों के अनुसार भगवान शिव की पूजा करते वक्त कभी भी शंख का प्रयोग नहीं किया जाता है।
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जानिए, क्या है इसके पीछे कारण
शिवपुराण की कथा के अनुसार दैत्यराज दंभ की कोई संतान नहीं थी। उसने संतान प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु की कठिन तपस्या की थी। दैत्यराज के कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उससे वर मांगने को कहा। तब दंभ ने महापराक्रमी पुत्र का वर मांगा। विष्णु जी तथास्तु कहकर अंतर्धान हो गए।इसके बाद दंभ के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम शंखचुड़ पड़ा।शंखचुड ने पुष्कर में ब्रह्माजी को खुश करने के लिए घोर तप किया। तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने वर मांगने के लिए कहा. तो शंखचूड ने वमें मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्माजी ने तथास्तु कहकर उसे श्रीकृष्णकवच दे दिया। इसके बाद ब्रम्हाजी ने शंखचूड के तपस्या से प्रसन्न होकर उसे धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा देकर अंतर्धान हो गए। ब्रह्मा की आज्ञा से तुलसी और शंखचूड का विवाह संपन्न हुआ।
ब्रम्हाजी के वरदान मिलने के बाद शंखचूड ने अहम में आ गया और उसने तीनों लोकों में अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया। शंखचूड़ से त्रस्त होकर देवताओं ने विष्णु जी के पास जाकर मदद मांगी, लेकिन भगवान विष्णु ने खुद दंभ पुत्र का वरदान दे रखा था। इसलिए विष्णुजी ने शंकर जी की आराधना की, जिसके बाद शिवजी ने देवताओं की रक्षा के लिए चल दिए, लेकिन श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे। इसके बाद विष्णु जी ने ब्रम्हाण रुप धारण कर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्णकवच दान में ले लिया और शंखचूड़ का रूप धारण कर तुलसी के शील का हरण कर लिया। इसके बाद भगवान शिव ने अपने त्रिशुल से शंखचूड़ का वध किया। ऐसी मान्यता है कि उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ और वो विष्णु जी का प्रिय भक्त था। यही कारण है कि भगवान विष्णु को शंख से जल चढ़ाना बहुत शुभ होता है, जबकि भगवान शंकर ने उसका वध किया था इसलिए शंकर जी की पूजा में शंख का प्रयोग करना वर्जित है।
(डिस्क्लेमर : यह पाठ्य सामग्री आम धारणाओं और इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के आधार पर लिखी गई है। टाइम्स नाउ नवभारत इसकी पुष्टि नहीं करता है।)