- देवी काली के इस मंदिर में खप्पर देखना मना है
- 'चलो चलते हैं' ये कहना मंदिर प्रांगण में सख्त मना है
- महिषासुर के वध के बाद मां काली यहीं आईं थीं
उदयपुर के लाहौर घाटी में बना प्रसिद्ध मृकुला देवी का मंदिर है। इस मंदिर में भक्तों को आने से पहले देवी के दर्शन से जुड़े नियमों को बता दिया जाता है, ताकि किसी को कोई कष्ट न होने पाए। कहा जाता है कि इस स्थान पर देवी तब आईं थी जब उन्होंने महिषासुर का वध किया था। वध के बाद वह खून से सना खप्पर लेकर यहीं आईं थीं। इसके बाद यहां देवी का मंदिर बना और साथ ही देवी का वह खप्पर आज भी मंदिर के पीछे मौजूद है। हालांकि इसे देखना भक्तों को मना है। इस मंदिर में मां काली की महिषासुर मर्दानी के आठ भुजाओं वाले रूप की पूजा की जाती है। मंदिर का इतिहास द्वापर युग के पांडवों के वनवास काल से जुड़ा माना गया है। मंदिर अपनी अद्भुत शैली और लकड़ी पर नक्काशी के लिए भी जाना जाता है।
महाभारत काल से भी जुड़ा है मंदिर का इतिहास
मंदिर के बनने के पीछे महाभारत काल की एक कहानी प्रसिद्ध है। एक भीम एक विशालकाय पेड़ शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा के पास ले गए और कहा कि वह इस पेड़ से एक मंदिर बनाएं। तब भगवान विश्वकार्मा ने एक दिन में ही ये मंदिर बना दिया मंदिर में कई ऐसे चित्र हैं जो बेहद अद्भुत और हैरान करने वाले हैं। मंदिर में मृत्यु शैया में लेटे भीष्म पितामह, सागर मंथन, सीता मैया का हरण, आशोक वाटिका, गंगा- यमुना, आठ ग्रह, भगवान विष्णु अवतार, भगवान शिव का तीसरा नेत्र खुलने जैसी कई तस्वीरे मौजूद हैं। साथ ही मंदिर के कपाट के पास द्वारपाल के रूप में बजंगरबली और भैरो खड़े हैं। मंदिर की दीवारे पहाड़ी शैली में बनाया गया है।
मना है खप्पर देखना
मंदिर में महिषासुर का वध करने के बाद मां काली यहां आईं थीं और साथ में उनके खून से सना खप्पर भी था। देवी का ये खप्पर यहां आज भी मौजूद है और इसे मंदिर में देवी की मुख्य मूर्ति के ठीक पीछे रखा गया है, लेकिन इसे भक्त नहीं देख सकते और यदि कोई जानबूझ कर इसे देखने का प्रयास करता है तो वह अंधा हो सकता है।
मंदिर में नहीं बोलना होता है ये बात
मंदिर में प्रवेश से पहले श्रद्धालुओं को यहां का एक राज भी बताया जाता है कि अंदर जाकर कोई गलती न करें। यहां पूजा- अर्चना और दर्शन के बाद भूलकर भी ‘चलो यहां से चलते हैं’ नहीं बोलना चाहिए। माना जाता है कि ऐसा बोलने पर आप और आपके परिवार पर विपदा आ सकती है। ऐसा कहने पर इस मंदिर के द्वार पर खड़े दोनों द्वारपाल भी साथ चल पड़ते हैं।