- श्राद्ध, पितृपक्ष जैसे परंपराओं से युवा पीढ़ी को जोड़ना जरूरी
- समाज के सांस्कारिक पक्ष को समुन्नत, सशक्त एवं सबल बनाये रखा जाये
- परम्पराओं के साथ साथ पर्यावरण को भी संरक्षित करना जरूरी
नई दिल्ली: श्राद्ध पित्तरों की श्रद्धा और आस्था से जुड़ा एक महापर्व है। हिंदी धर्म में पितृपक्ष भारतीय संस्कृति से जुड़ा एक अनूठा हिस्सा है जिसमें पित्तरों को याद कर उनका श्राद्ध तर्पण दान आदि किया जाता है। इस सिलसिले में टाइम्स नाउ हिंदी ने ऋषिकेश स्थित परमार्थ निकेतन आश्रम के प्रमुख स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी महाराज से बातचीत की जिन्होंने इससे जुड़े विषय पर प्रकाश डाला।
स्वामी चिदानंद ने इस बारे में बताया कि यदि इसका सकारात्मक उपयोग किया जाये तो यह समाज में विलक्षण परिवर्तन कर सकता है। टाइम्स नाऊ की यह पहल कि भारतीय संस्कारों का वास्तविक पक्ष क्या है और युवाओं को कैसे अपनी दिव्य संस्कार परम्पराओं जोड़े। वास्तव में यह चितंन का विषय है।हम अपने युवाओं को भारतीय परम्पराओं और मान्यताओं के सही अर्थ से अवगत नहीं करायेंगे तो यह परम्परायें समय के साथ समाप्त हो जायेंगी। इसलिये जरूरी है कि हमारी युवा पीढ़ी भारतीय परम्पराओं और मान्यताओं के आध्यात्मिक और वैज्ञानिक पक्ष को समझे और उसके मूल और मूल्यों से जुड़ी रहे।
उन्नत संस्कृति एवं सभ्यता के विकास के लिये जरूरी
उन्नत संस्कृति एवं सभ्यता के विकास के लिये नितांत आवश्यक है कि समाज के सांस्कारिक पक्ष को समुन्नत, सशक्त एवं सबल बनाये रखा जाये। समाज का विकसित स्वरूप ही उन्नत समाज का निर्माण करता है जिसमें न केवल अतीत की परम्पराओें संस्कारों, रीति-रिवाजों, भाषा, बोली एवं रिश्ते नातों को समुचित स्थान दिया गया है अपितु भावी पीढ़ी के सतत अस्तित्व और विकास के लिये नयी पीढ़ी को पारम्परिक मान्यताओं से जोड़ा जाता है ताकि परम्पराओं के साथ साथ पर्यावरण को भी संरक्षित किया जा सके।
पितृपक्ष भारतीय परम्परा का अहम हिस्सा
पितृपक्ष भारतीय परम्परा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। दिवंगत पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये पवित्र स्थान या नदी के तट पर श्राद्ध किया जाता है। हिंदू धर्म में वैदिक परंपराओं के अनुसार कई रीति-रिवाज, व्रत-त्यौहार व परंपरायें हैं। हमारे शास्त्रों में गर्भधारण से लेकर मृत्योपरांत तक के संस्कारों का उल्लेख है और श्राद्ध कर्म उन्हीं में से एक है। प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तक पूरा पखवाड़ा श्राद्ध कर्म करने का विधान है। इस पखवाडें में अपने-अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने हेतु पूजन कर्म किया जाता है। पितृपक्ष की परम्परा वास्तव में स्वास्थ्य, पर्यावरण संरक्षण, सह अस्तित्व एवं समस्त प्राणिजगत के प्रति मानव का मातृत्व भाव प्रकट करने की परम्परा रही है। श्राद्ध पक्ष में पितरों को भोजन देना वास्तव में प्राणिजगत के प्रति मानव की सहअस्तित्व एवं मातृत्व का स्वरूप है।
भारत में सर्वे भवन्तु सुखिनः की है परंपरा
तीन माह तक चलने वाली लम्बी वर्षा ऋतु के पश्चात पर्यावरण में बहुत सारे परिवर्तन आते हैं। वर्षा के दौरान अनेक जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोडे़ बेघर हो जाते है; जमीन पर पानी की वजह से उनके चुगने अथवा भोजन की व्यवस्था में अति कठिनाई होती है। सह-अस्तित्व, वसुधैव कुटुम्बकम एवं सर्वे भवन्तु सुखिनः की भावना को संजोने वाले ऋषि मुनियों ने पितृ पक्ष में पितरों को भोजन अर्पित करने की परम्परा की शुरूआत इन्ही भावनाओं के संरक्षित करने के लिये की थी। अब सवाल यह उठता है कि श्राद्ध पक्ष में ही सिर्फ 15 दिनों के लिये क्यों? क्योंकि इस वक्त केवल धान की फसल होती है वह भी इस समय तक खाने योग्य नहीं होती पक्षियों एवं छोटे प्राणियों के लिये भोजन इकट्ठा करना बेहद कठिन होता है।
अतः मार्मिक हृदय के महापुरूषों ने यह जानते हुये कि हमारे पुरखों के प्रति भोजन अर्पण का भाव ही पर्याप्त है; परन्तु इस तरह से पितरों को भोजन अर्पण की परम्परा को रीति-रिवाजों व संस्कारों के साथ जोड़ दिया ताकि पितरों को अर्पित भोजन को पशु-पक्षी(छत में आने वाले) व घर पर रहने वाले अन्य छोटे जीव जन्तुओं को भोजन प्राप्त हो सके और साथ ही सह-अस्तित्व,समभाव तथा समस्त प्राणि जगत के लिये सर्वे भवन्तु सुखिनः की मानवीय भावना चरितार्थ हो सके।
परंपराओं के साथ पर्यावरण भी बचाना है
दूसरी ओर मनुष्य हरियाली युक्त पृथ्वी के स्थान पर एक ऐसे ग्रह के निर्माण की ओर अग्रसर है जहां पर प्रतिदिन जंगल काटे जा रहे हैं; चारों ओर प्रदूषण बढ़ रहा है। ऐसे में एक प्रश्न उठता है कि क्या हम पितृदोष से बचने के लिये खीर अर्पण करते रहें और पृथ्वी से घटती ऑक्सीजन एवं कम होते जल की ओर उदासीन बने रहें। यही बात हमारे युवाओं को समझानी होगीकि हमें परम्परायें भी बचानी हैं और पर्यावरण को भी बचाना है पृथ्वी से कम होता जल और ऑक्सीजन वर्तमान और भविष्य दोनों पीढ़ियों के लिये भयावह है।
वनों का, पहाड़ों का प्रदूषण रहित होना जरूरी
जब तक पर्यावरण सुरक्षित है तभी तक मानव का जीवन सम्भव हैअतः पर्यावरण की रक्षा के लिये वनों का, पहाड़ों का प्रदूषण रहित होना नितांत आवश्यक है। पेडों की शीतल छाया माँ के आंचल के समान है। पेड़ों को सुरक्षित कर हम मानव सभ्यता को सुरक्षित कर सकते हैं।वर्तमान ओर भावी पीढ़ी को सुरक्षित एवं स्वस्थ्य रखने के लियेप्रत्येक मनुष्य को वृक्षारोपण की संस्कृति को जीवन में धारण करना होगा , मुझे लगता है पितृपक्ष के श्रेष्ठ अवसर पर हम दोनों पीढ़ियों के लिये कुछ ऐसा करें जो पितर और भावी पीढ़ी दोनों के लिये श्रेयकर हो।
पितरों की याद में पौधा रोपण या पौधा दान अर्थात किसी के लिये आश्रय का दान,किसी के लिये प्राणवायु आक्सीजन का दान और किसी के लिये माँ के आंचल की तरह छाया का दान इससे पितरों को शान्ति एवं मोक्ष प्राप्त होगा वह भी केवल पितृपक्ष में ही नहीं बल्कि प्रतिदिन। आईये इस पितृपक्ष ऐसा दान दें कि दुनिया याद रखें ’पितृ तर्पण और पेड़ अर्पण’।
पितृ तर्पण, पेड़ अर्पण का संकल्प लें
हमारी ’अर्पण, तर्पण और समर्पण’ की संस्कृति है। इस ’अर्पण, तर्पण और समर्पण’ की त्रिवेणी में ऋषियों ने समाज को बहुत कुछ दिया अनेक ऋषियों ने स्वयं को समर्पित कियावे पितर जिनकी वजह से आज हम और हमारी संस्कृति जीवंत है उनके लिये भी हमारा पावन कर्तव्य बनता है जब हम पितृ तर्पण करें तोपेड़ अर्पण जरूर करें। खीर तो अर्पण करें लेकिन नीर को बचाने का भी संकल्प ले, (नीर माने पानी) आईये पितृ तर्पण, पेड़ अर्पण का संकल्प लें’ और चले खीर से नीर की ओर पानी बचेगा तो प्राणी बचेंगे जल बचेगा तो जीवन बचेगा जीविका बचेगी, जिन्दगी बचेगी जल जागरण को जन जागरण बनाना होगा जल चेतना, जन चेतना बने। जल क्रान्ति जन क्रान्ति बने तभी बचेंगी आने वाली पीढ़ियाँ पृथ्वी और प्राण।