- साईं ने 15 अक्टूबर 1918 को अपने प्राण त्यागे थे
- साईं अंतिम दिनों में लगातार धर्मग्रंथ सुनते थे
- साईं महानिर्वाण से तीन दिन पहले भिक्षाटन छोड़ दिया था
साईं ने दुनिया छोड़ने का संकेत पहले ही दे दिया था और जब उनके अंतिम दिन निकट आने लगे तो उनके रोज की दिनचर्या भी बदल गई थी। साईं ने भी अपने अंतिम दिनों में धार्मिक ग्रंथ को सुनते हुए प्राण त्यागे थे। धर्मग्रंथ को सुनने के पीछे पौराणिक मान्यताएं रही हैं। माना जाता है कि धर्मग्रंथ सुनने से आत्मा बहुत ही आसानी से शरीर को छोड़ देती है और इन ग्रंथों को अंतिम समय में सुनने से मनुष्य को सदगति की प्राप्ति होती है। मनुष्य अंतिम समय में जब अच्छे विचार सुनता है तो उसकी आत्मा को वैसी ही गति मिलती है और अगला जन्म बेहतर या मोक्ष की प्राप्ति होती है। साईं ने भी कुछ ऐसी ही अपनी समाधि से पूर्व इच्छा जाहिर की थी। तो आइए आपको साईं के अंतिम दिनों की बारे में बताएं।
सिद्ध योगी होकर भी सुने थे धार्मिक ग्रंथ
साईं बाबा ने जब यह तय कर लिया कि वह अब ईश्वर में विलीन होंगे, तब उन्होंने समाधि की तैयारी शुरू कर दी। अपने अंतिम दिनों में साईं ने भी धार्मिक ग्रंथ का श्रवण किया। साई एक सिद्ध योगी और गुरु होने के बावजूद धार्मिक ग्रंथों के महत्व को जानते थे और अंतिम समय में उसे सुनते हुए ही अपने प्राण त्यागे थे। साईं ने धर्मग्रंथ का श्रवण कर सभी को ये संदेश दिया कि धर्म ग्रंथों का महत्व जीवन के साथ ही नहीं जीवन के बाद भी बहुत महत्व रखता है।
महानिर्वाण से तीन दिन पूर्व छोड़ दिया था भिक्षाटन
साईं ने अपने महानिर्वाण से दो-तीन दिन पूर्व ही भिक्षाटन का कार्य छोड़ दिया था। वह एक जगह बैठकर पूरा दिन केवल धर्मग्रंथ का श्रवण करते थे। साईं उन दिनों शिरडी के मस्जिद में ही बैठे रहते थे।
अंतिम समय में सुने थे 'रामविजय प्रकरण'
साईं की अंतिम इच्छा यही थी कि वह 'रामविजय प्रकरण' सुनें। इसे सुनाने के लिए उन्होंने श्री वझे को चुना था। श्री वझे ने 'रामविजय प्रकरण' (श्री रामविजय कथासार) लगातार एक सप्ताह तक इस पाठ को सुनाते रहे। बाबा ने उन्हें आठों प्रहर पाठ करने की आज्ञा दी थी, इसलिए वह बिना रुके इस पाठ को करते रहे। श्री वझे 'रामविजय प्रकरण' की द्घितीय आवृत्ति 3 दिन में पूर्ण कर दी और ऐसा करते हुए 11 दिन बीत गए। फिर 3 दिन और उन्होंने पाठ किया। ऐसा करते-करते श्री वझे बिलकुल थक गए। तब साईं ने उन्हें आराम करने को कहा और खुद बिलकुल शांत बैठ गए और आत्मस्थित होकर वे अंतिम क्षण की प्रतीक्षा करने लगे।
दशहरे के दिन त्याग दिए अपने प्राण
साईं के परम भक्त काकासाहेब दीक्षित और श्रीमान बूटी, बाबा के साथ मस्जिद में ही रोज उन दिनों भोज किया करते थे। 15 अक्टूबर को जब दिन आरती समाप्त हो गई तब बाबा ने सबको अपने घर जाने को कहा, लेकिन लक्ष्मीबाई शिंदे, भागोजी शिंदे, बयाजी, लक्ष्मण बाला शिम्पी और नानासाहेब निमोणकर नहीं गए और बाबा के पास ही रहे। शामा नीचे मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठी थीं।
ये थे बाबा के अंतिम शब्द
तब बाबा ने लक्ष्मीबाई शिंदे को 9 सिक्के दिए और कहा कि उन्हें कहा कि, मुझे मस्जिद से अब ले चलो। मैं बूटी के पत्थरवाड़े में सुकुन से रहना चाहता हूं। ये अंतिम शब्द बोल कर बाबा चुप हो गए। लक्ष्मीबाई उन्हें वहां ले जाने लगी और रास्ते में ही बाबा का शरीर एक ओर लटक गया और उन्होंने अंतिम श्वास छोड़ दी। यह देख भागोजी और नानासाहेब निमोणकर ने कुछ जल बाबा के श्रीमुख में डाला, लेकिन वह बाहर आ गया। इसके बाद सभी उनके समाधिस्थ से परिचित हो गए।
संदर्भ : श्रीसांईं सच्चरित्र