Geeta Gyan In Lock down Part 2: पाप और पुण्य क्या है? मनुष्य ने चाहते या न चाहते हुए भी जीवन में बहुत पाप किए है, लेकिन वह फिर भी प्रायश्चित वह साधु का दर्जा हासिल कर सकता है। लॉकडाउन में गीता के जरिए जानिए कि मनुष्य पाप करने के बावजूद किस तरह से भगवान को प्राप्त कर सकता है।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्ववसितो हि सः।।
(गीता अध्याय 09 श्लोक 30)
भावार्थ: एक मात्र ईश्वर परमपिता भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यदि कोई बहुत ही दुराचारी व्यक्ति भी प्रेम व भक्ति के अनन्य भाव से हमको भजता है तो वह साधु है। क्योंकि उसने भली-भांति निश्चय कर लिया है कि परम पिता परमेश्वर कृष्ण के भजन के समान अब अन्यत्र कहीं कुछ नहीं है।
दार्शनिक व प्रासंगिक अर्थ
यदि कोई व्यक्ति जीवन में बहुत पाप किया है। उसने कभी कोई पुण्य पाप का विचार किया ही नहीं है केवल अपने भौतिक व इंद्रियों के सुख के लिए ही जीवन जिया है। किसी कारण वश यदि उसको अपने किये गए पाप का बोध हो जाय अर्थात वो अच्छी तरह जान ले कि हमने अब तक जीवन में जो भी पाप कर्म किए वो बहुत ही गलत थे।अब वो क्या करे?
वो सदैव इस चिंतन में है कि हमारे पाप कैसे कटेंगे?जो हमने कमाया वो व्यर्थ था। उसको प्रायश्चित होता है। जब जीवात्मा अपने पाप कर्मों का प्रायश्चित करती है तो उसकी आत्मा पवित्र होती है। वो सदैव इस पाप को मिटाने के लिए युक्ति की तलाश करती है।
यहां परमेश्वर कृष्ण कहते हैं कि वो अपने पापों का प्रायश्चित करके दुबारा पाप न करें,ऐसा निश्चित करके अनन्य भाव से हमको भजना प्रारम्भ करता है अर्थात उसका अब मेरे सिवा कोई आलम्ब नहीं है।
भगवान कहते हैं कि ऐसी स्थिति में वो मेरी नजर में साधु हो गया तथा मेरा प्रिय भक्त हो गया क्योंकि उसने निश्चित कर लिया कि मेरे भजन के समान अब उसके लिए कुछ भी नहीं है।
वर्तमान परिवेश में इसका अर्थ
हमनें अब तक जो भी कर्म किये हैं। उन सब कर्मों का एकांत में चिंतन करें। हमने क्या गलत किया।हमसे कहां कहां कब पाप हुआ। आत्मचिंतन करें।अभी बहुत समय है।उन पापों का प्रायश्चित करें। अब संकल्प लें कि कभी भविष्य में कोई भी पाप नहीं करेंगे व शेष जीवन निष्काम कर्म करते हुए भगवान की भक्ति में व्यतीत करेंगे।
कृष्ण के अलावा मेरा कोई नहीं है। उसके भजन के समान सुख अन्यत्र कहीं नहीं है। ऐसा करने पर आप भगवान के प्रिय बन जाएंगे तथा आपका जन्म सार्थक हो जाएगा। इस मानव जन्म का मूल उद्देश्य समाज के लिए कुछ अच्छे कार्य निष्काम भाव से करते हुए स्थितिप्रज्ञ बने रहना व अपने जीवन को हरि चरणों में समर्पित करना ही है।