मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को पड़ने वाली अष्टमी भैरव अष्टमी के नाम से जानी जाती है। माना जाता है कि इसी दिन ही शिवजी ने भैरव का अवतार धारण किया था। वहीं मंगलवार के दिन आने वाली काल भैरव अष्टमी का खास महत्व बताया गया है।
पुराणों के अनुसार, भगवान शिव ने असुरों के नाश के लिए भैरव बाबा का रूप लिया था। उनके इस रूप का वाहन कुत्ता बताया जाता है और साथ ही उनके हाथ में एक डंडा भी होता है। माना जाता है कि इसी डंडे से वह पापियों के दंड का निर्धारण करते हैं। इन्हीं बाबा भैरव से आगे अष्टांग भैरवों की उत्पत्ति मानी जाती है।
शिव मंदिर में कैसे होती है भैरव पूजा
तमाम शिव मंदिरों में सुबह सूर्योदय के साथ पूजा शुरू होती है और ये रात को भैरव पूजन के साथ समाप्त हेाती है। भैरव को देसी घी का स्नान यानी अभिषेक बहुत पसंद है। इसके अलावा उनकी पूजा में साबुत नारियल, उबली सब्जियां, लाल फूल, घी की दीपक, शहद और ताजे फल शामिल रहते हैं।
कैसे रखी जाती है भैरव की मूर्ति
वेस्ट यानी पश्चिम दिशा की ओर रखी गई भैरव की मूर्ति अच्छी मानी जाती है। दक्षिण की ओर रखी गई मूर्ति ठीक-ठाक होती है जबकि पूर्व दिशा की ओर भैरव की मूर्ति का मुख नहीं किया जाता है। ऐसी मूर्ति शुभ नहीं मानी जाती है। मंदिरों में भैरव बाबा की प्रतिमा उत्तर दिशा में दक्षिण की ओर मुख करके स्थापित की जाती है।
आधी रात को होती है प्रार्थना
भैरव की पूजा रात के समय की जाती है। माना जाता है कि इसी समय भैरव अपनी भैरवी के साथ बाहर निकलते हैं और भक्तों को दर्शन देते हैं। भैरव बाबा की पूजा का सबसे अच्छा समय शुक्रवार को मध्य रात्रि का माना गया है। इस पूजा में 8 तरह के फूल-पत्तों का इस्तेमाल होता है। वहीं मंगलवार को भैरव पूजन से सुख और संपत्ति का वरदान मिलता है।