- वैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन भगवान शिव और विष्णु जी का मिलन होता है
- भगवान शिव सृष्टी का भार विष्णु जी को सौंप कर हिमालय चले जाते हैं
- इस दिन दोनों ही देवताओं की प्रिय वस्तुएं एक-दूसरे को अर्पिित करनी चाहिए
भगवान शिव और विष्णु की एक साथ वैकुण्ठ चतुर्दशी पर पूजा होती है। इस दिन दिवाली की तरह दोनों ही देवताओं के मिलन का उत्साह मनाया जाता है। उज्जैन और वाराणसी में इस त्योहार को बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। वैकुण्ठ चतुर्दशी कार्तिक पूर्णिमा के एक दिन पहले होती है और इस बार 28 नवंबर को मनाई जाएगी। 29 नवंबर को देव दीपावली होगी। इस दिन भगवान शिव और विष्णु के मंदिरों को वैकुण्ठ धाम की तरह सजाया जाता है।
यही नहीं यही वो दिन होता है जब भगवान विष्णु को भगवान शिव की प्रिय चीजें और भगवान विष्णु की प्रिय चीजें शिव जी को अर्पित की जाती है। इस दिन तुलसी पत्तियां शिवजी को अर्पित होती हैं और इसके आलवा कभी भी शिवजी को तुलसी नहीं चढ़ाया जाता है। वहीं इस दिन भगवान शिव बदले में भगवान विष्णु को बेलपत्र अर्पित किए जाते हैं।
वैकुण्ड चतुर्दशी के दिन अरुणोदय काल में यानी ब्रह्म मुहूर्त में स्वयं भगवान विष्णु काशी के मणिकर्णिका घाट पर स्नान किए थे और पाशुपत व्रत कर भगवान विश्वेश्वर ने यहां पूजा की थी। भगवान शंकर ने भगवान विष्णु के तप से प्रसन्न होकर इस दिन पहले विष्णु और फिर उनकी पूजा करने वाले हर भक्त को वैकुंठ पाने का आशीर्वाद मिलता है।
मान्यता है कि बैकुंठाधिपति भगवान विष्णु की पूजा करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है और वैकुंठ धाम में वास मिलता है। इसी दिन 'काशी विश्वनाथ स्थापना दिवस' के रूप में भी मनाया जाता है। इस शुभ दिन के उपलक्ष्य में भगवान शिव तथा विष्णु की पूजा की जाती है। इसके साथ ही व्रत का पारण किया जाता है।
कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी (वैकुण्ठ चतुर्दशी) की रात्रि में भगवान विष्णु और भगवान शंकर का मिलन हरिहर मिलाप की तरह मनाया जता है। माना जाता है कि इस दिन मध्य रात्रि में शिव जी, विष्णु जी से मिलने जाते है। इस मिलन पर ही भगवान शिव चार महीने के लिए गए अपने सृष्टि के भार को भगवान विष्णु को सौंप देते हैं और हिमालय पर्वत पर चले जाते हैं। इस मिलन पर दोनों ही देवताओं को एक-दूसरे के प्रिय वस्तुओं का भोग लगाया जाता है। इस दिन भगवान को विभिन्न ऋतु फलों का भोग लगाया जाता है। इस दिन शिव और विष्णु मंत्रों का जाप करना चाहिए और इससे मनुष्य के समस्त सांसारिक सुखों की प्राप्ति होती है।
वैकुण्ड चतुर्दशी की कथा (Vaikuntha Chaturdashi Katha)
एक बार भगवान विष्णु देवाधिदेव महादेव का पूजा करने काशी आए और मणिकर्णिका घाट पर स्नान करके उन्होंने एक हज़ार स्वर्ण कमल पुष्पों के साथ उनकी पूजा का का संकल्प किया। अभिषेक के बाद जब वे पूजन करने लगे तो शिवजी ने उनकी भक्ति की परीक्षा लेने का मन बनाया और एक पुष्प उसमें से गायब कर दिया। पूजा करते हुए उन्होंने देखा कि एक पुष्प कम है तो वह सोच में पड़ गए। तभी उन्हें याद आया कि उनके नयन भी कमल पुष्प समान ही हैं तो क्यों न वह अपने नयन चढ़ा दें। क्योंकि उन्हें 'कमल नयन' और 'पुंडरीकाक्ष' कहा जाता है। यह सोच कर भगवान विष्णु अपनी कमल समान आंख चढ़ाने के लिए अपने शस्त्र निकाल लिए और जैसे वह नयन निकालने गए तभी भगवान शिव प्रकट हो गए और कहा,"हे विष्णु! तुम्हारे समान संसार में दूसरा कोई मेरा भक्त नहीं है। आज की यह कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी अब 'वैकुण्ठ चतुर्दशी' कहलाएगी और इस दिन व्रत पूर्वक जो पहले आपका पूजन करेगा, उसे बैकुंठ लोक की प्राप्ति होगी। भगवान शिव, इसी वैकुण्ठ चतुर्दशी को करोड़ों सूर्यों की कांति के समान वाला सुदर्शन चक्र, विष्णु जी को प्रदान करते हैं।
वैकुण्ड चतुर्दशी के दिन मान्यता है कि स्वर्ग के द्वार खुले रहते हैं और यदि इस दिन किसी का भी मृत्यु होती है तो वह आत्मा सीधे स्वर्ग को जाती है।